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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
(२) इसके पश्चात् दूसरी भावना यह है - मन को जो अच्छी तरह जानकर पापों से हटाता है, जो मन पापकर्ता, सावद्य (पाप से युक्त) है, क्रियाओं से युक्त है कर्मों का आस्रवकारक है, छेदन-भेदनकारी है, क्लेश-द्वेषकारी है, परितापकारक है; प्राणियों के प्राणों का अतिपात करने वाला और जीवों का उपघातक है, इस प्रकार के मन (मानसिक विचारों ) को धारण (ग्रहण) न करे। मन को जो भली-भाँति जान कर पापमय विचारों से दूर रखता है वही निर्ग्रन्थ है। जिसका मन पापों से (पापमय विचारों ) से रहित है, (वह निर्ग्रन्थ है)। यह द्वितीय भावना है।
(३) इसके अनन्तर तृतीय भावना यह है – जो साधक वचन का स्वरूप भलीभाँति जान कर सदोषवचनों का परित्याग करता है, वह निर्ग्रन्थ है। जो वचन पापकारी, सावध, क्रियाओं से युक्त, कर्मों का आस्रवजनक, छेदन-भेदनकर्ता, क्लेश-द्वेषकारी है, परितापकारक है, प्राणियों के प्राणों का अतिपात करने वाला और जीवों का उपघातक है; साधु इस प्रकार के वचन का उच्चारण न करे। जो वाणी के दोषों को भलीभाँति जानकर सदोष वाणी का परित्याग करता है, वही निर्ग्रन्थ है। उसकी वाणी पापदोष रहित हो, यह तृतीय भावना है।
(४) तदनन्तर चौथी भावना यह है – जो आदानभाण्डमात्रनिक्षेपण-समिति से युक्त है, वह निर्ग्रन्थ है। केवली भगवान् कहते हैं - जो निर्ग्रन्थ आदानभाण्ड (मात्र) निक्षेपणसमिति से रहित है, वह प्राणियों, भूतों, जीवों, और सत्त्वों का अभिघात करता है, उन्हें आच्छादित कर देता है- दबा देता है, परिताप देता है, चिपका देता है, या पीड़ा पहुंचाता है। इसलिए जो आदानभाण्ड (मात्र) निक्षेपणासमिति से युक्त है, वही निर्ग्रन्थ है, जो आदानभाण्ड (मात्र) निक्षेपणसमिति से रहित है, वह नहीं। यह चतुर्थ भावना है।
(५) इसके पश्चात् पाँचवी भावना यह है - जो साधक आलोकित पान-भोजन-भोजी होता है वह निर्ग्रन्थ होता है। अनालोकितपानभोजन-भोजी नहीं। केवली भगवान् कहते हैं – जो बिना देखे-भाले ही आहार-पानी सेवन करता है, वह निर्ग्रन्थ प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को हनन करता है यावत् उन्हें पीड़ा पहुँचाता है। अतः जो देखभाल कर आहार-पानी का सेवन करता है, वही निर्ग्रन्थ है, बिना देखे-भाले आहार-पानी करने वाला नहीं। यह पंचम भावना
७७९. इस प्रकार पंचभावनाओं से विशिष्ट तथा साधक द्वारा स्वीकृत प्राणातिपात विरमणरूप प्रथम महाव्रत का सम्यक् प्रकार काया से स्पर्श करने पर , उसका पालन करने पर गृहीत महाव्रत को भलीभाँति पार लगाने पर, उसका कीर्तन करने पर उसमें अवस्थित रहने पर, भगवदाज्ञा के अनुरूप आराधन हो जाता है।
हे भगवन् । यह प्राणातिपातविरमण रूप प्रथम महाव्रत है।
विवचेन–प्रथम महाव्रत की पाँच भावनाएँ—प्रस्तुत सूत्र ७७८ में प्रथम महाव्रत की पाँच भावनाओं का सांगोपांग निरूपण है। तथा सू. ७७९ में पाँच भावनाओं में समन्वित प्रथम