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________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र - ७५४ ३८५ थोड़ी है। 'देवच्छंदयं' आदि पदों की व्याख्या -'देवच्छंदय' का अर्थ प्राकृतशब्दकोष में मिलता है—देवच्छंदक जिन देव का आसन स्थान। जानविमाणं-सवारी या यात्रावाला विमान। 'वेउव्विएणं समुग्घाएणं समोहणति'—वैक्रियसमुद्घात करता है। समुद्घात एक प्रकार की विशिष्ट शक्ति है, जिसके द्वारा आत्म-प्रदेशों का संकोच-विस्तार किया जाता है। वैक्रिय शरीर जिसे मिला हो अथवा वैक्रियलब्धि जिसे प्राप्त हो, वह जीव वैक्रिय करते समय अपने आत्म-प्रदेशों को शरीर से बाहर निकाल कर विष्कम्भ और मोटाई में शरीरपरिमाण और लम्बाई में संख्येय योजनपरिमाण दण्ड निकालता है और पूर्वबद्ध वैक्रिय शरीर नामकर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है। वैक्रिय समुद्घात वैक्रिय के प्रारम्भ करने पर होता है। णिसीयावेति-बिठाता है। अब्भंगेति–तेलमर्दन करता है। उल्लोलेति–उद्वर्तन-उबटन करता है। मज्जावेति-स्नान कराता है। जस्स जतबलं सहस्सेणं-जिसका यंत्रबल(शरीर को शीतल करने की नियन्त्रण शक्ति) लाख गुनी अधिक हो। इसके बदले पाठान्तर मिलता है—'जस्स य मुल्लं सय-साहस्सेण' इसका अर्थ होता है जिसका मूल्य एक लाख स्वर्णमुद्रा हो। 'तिपडोलतित्तएणं साहिएणं'–तीन पट लपेट कर सिद्ध किया, बनाया हुआ। अणुलिंपति-शरीर में यथास्थान लेप करता है। ईसिणिस्सासवातवोझं-थोड़े-से निःश्वासवायु से उड़ जाने योग्य । वरणगरपट्टणुग्गतं - श्रेष्ठनगर और व्यावसायिक केन्द्र (पत्तन) में बना हुआ।अस्सलालपेलयं– अश्व की लार के समान श्वेत, या कोमल। छेयायरियकणगखचितंतकम्मं–कुशल शिल्पाचार्यों द्वारा सोने के तार से जिसकी किनारी बांधी हुई है। 'णियंसावेति'—पहनाता है। पालंब सुतपट्टमउडरयणमालाइं-लम्बा गले का आभूषण, रेशमी धागे से बना हुआ पट्ट-पहनने का वस्त्र, मुकुट और रत्नों की मालाएँ। 'आविंधावेति'—पहनाता है। गंथिम-वेढिम-पूरिम-संघातिमेणं मल्लेणं- गूंथी हुई, लपेटकर (वेष्टन से) बनाई हुई, संघातरूप (इकट्ठी करके) बनी हुई माला से। ईहामिग-भेड़िया। 'रुरु'-मृगविशेष। सरभ-शिकार जाति का एक पशु, सिंह, अष्टापद या वानर विशेष। 'जंतजोगजुत्तं'यंत्रयोग(पुत्तलिकायंत्र) से युक्त। अच्चीसहस्समालिणीयं सहस्रकिरणों से सूर्यसम सुशोभित। सुणिरूवितमिसमिसेंतरूवं—उसका चमचमाता हुआ रूप भलीभाँति वर्णनीय था। असहस्सकलितं - सहस्ररूपों में भी उसका आकलन नहीं हो सकता था। 'भिसमाणं भिब्भिसमाणं'- चमकती हुई, विशेष प्रकार से चमकती हुई। चक्खुल्लोयणलेस्सं-चक्षुओं से लेशमात्र ही अवलोकनीय, अर्थात् नेत्रों को चकाचौंध कर देने वाला। मुत्ताहडमुत्तजालंतरोयितं—उसका सिरा (किनारा) मोती और मोतियों की जाली से सुशोभित था। तवणीयपवर-लंबूस-पलंबंत मुत्तदामं– सोने के बने हुए कन्दुकाकार आभूषणों से युक्त मोतियों १. आचारांग मूलपाठ पृ. २६८-२६९
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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