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पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र ७५४
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विहग-वाणर-कुंजर' रूरू-सरभ-चमर-सर्दूल-सीह-वणलय-चित्तविजाहर-मिहुणजुगलजंतजोगजुत्तं अच्चीसहस्स मालिणीयं सुणिरूवितमिसमिसेंतरूवमसहस्सकलितं भिसमाणं भिब्भिसमाणं चक्खुल्लो यणलेस्स मुत्ताहडमुत्तजालंतरोयितं तवणीयपवरलंबूस-पलंबंमुत्तदामं हारद्धारभूसणसमोणतं अधियपेच्छणिजं पउमलयभत्तिचित्तं असोगलय-भत्तिचित्त कुंदलयभत्तिचित्तं णाणालयभत्तिविरइयं सुभं चारुकंतरूवं णाणामणिपंचवण्ण-घण्टापडायपरिमंडितग्गसिहरं सुभं चारुकंतरूवं पासादीयं दरिसणीयं
सुरूवं।
७५४. तत्पश्चात् देवों के इन्द्र देवराज शक्र ने शनैः शनैः अपने यान विमान को वहाँ ठहराया। फिर वह धीरे धीरे विमान से उतरा। विमान से उतरते ही देवेन्द्र सीधा एक ओर एकान्त में चला गया। वहाँ जाकर उसने एक महान् वैक्रिय सुमुद्घात किया। उक्त महान् वैक्रिय समुद्घात करके इन्द्र ने अनेक मणि-स्वर्ण-रत्न आदि से जटित-चित्रित, शुभ, सुन्दर, मनोहर कमनीय रूप वाले एक बहुत बड़े देवच्छंदक (जिनेन्द्र भगवान् के लिए विशिष्ट स्थान) का विक्रिया द्वारा निर्माण किया। उस देवच्छंदक के ठीक मध्य-भाग में पादपीठ सहित एक विशाल सिंहासन की विक्रिया, की, जो नाना मणि-स्वर्ण-रत्न आदि की रचना से चित्र-विचित्र, शुभ, सुन्दर और रम्य रूपवाला था। उस भव्य सिंहासन का निर्माण करके जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ वह आया। आते ही उसने भगवान की तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, फिर वन्दन नमस्कार करके श्रमण भगवान महावीर को लेकर वह देवच्छन्द्रक के पास आया। तत्पश्चात भगवान को धीरे-धीरे उस देवच्छन्दक में स्थित सिंहासन पर बिठाया और उनका मुख पूर्व दिशा की ओर रखा।
., यह सब करने के बाद इन्द्र ने भगवान् के शरीर पर शतपाक, सहस्रपाक तेलों से मालिश की, तत्पश्चात् सुगन्धित काषाय द्रव्यों से उनके शरीर पर उबटन किया फिर शतपाक, सहस्रपाक १. 'कुंजर-रुरु वणलयचित्त' के बदले कल्पसूत्र ४५ पाठ है-'कुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं' २. 'जंतजोगजुत्तं' के बदले पाठान्तर है-'जंतजोगचित्तं'। ३. 'असहस्सकलितं' के बदले पाठान्तर है-'असहस्सकयलिगं।' अर्थात्-उस पर हजार से कम चिह्न
बनाये हुए थे। ४. 'भिसमाणं' के बदले पाठान्तर है—'ईसिभिसमाणं', भिसमीणं'। अर्थ होता है- थोड़ा-सा चमकता
हुआ। ५. 'चक्खुल्लोयणलेस्सं' के बदले पाठान्तर हैं—'चक्खुलोयणलेस्सं, चक्खुल्लेयणलिस्सं।' ६. 'रोयितं' के बदले 'रोइयं' 'रोयियं' पाठान्तर हैं। ७. 'लंबुसपलंबंतं' के बदले पाठान्तर हैं- लंबुसतो लंबंतं-लंबूसए लंबंयं। ८. 'भित्तिचित्त' के बदले पाठान्तर है-भित्तचित्तं।-भीत पर चित्रित। ९. 'सुंभं चारुकंतरूवं' के बदले पाठान्तर है-'सुभकंतचारूकंतरूवं', 'सुभंचारू चारू'। किसी-किसी
प्रति में दूसरी बार आया हुआ 'सुभंचारुकंतरूवं,' पाठ नहीं है। यहाँ दो बार इन शब्दों का प्रयोग क्रमशः 'अग्रशिखर' का और 'शिविका' का विशेषण बताने के लिए किया गया लगता है।