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________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र ७५३ ७५३. तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर के अभिनिष्क्रमण के अभिप्राय को जानकर भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव एवं देवियाँ अपने-अपने रूप से, अपने-अपने वस्त्रों में और अपने-अपने चिह्नों से युक्त होकर तथा अपनी-अपनी समस्त ऋद्धि, द्युति, और समस्त बलसमुदाय सहित अपने-अपने यान- विमानों पर चढ़ते हैं । फिर सब अपने-अपने यान - विमानों में बैठकर कर जो भी बादर (स्थूल) पुद्गल हैं, उन्हें पृथक् करते हैं । बादर पुद्गलों को पृथक् करके सूक्ष्म पुद्गलों को चारों ओर से ग्रहण करके वे ऊँचे उड़ते हैं। ऊँचे उड़कर अपनी उस उत्कृष्ट, शीघ्र, चपल, त्वरित और दिव्य देव गति से नीचे उतरते-उतरते क्रमशः तिर्यक्लोक में स्थित असंख्यात द्वीप-समुद्रों को लांघते हुए जहाँ जम्बूद्वीप नामक द्वीप है, वहाँ आते हैं। वहाँ आकर जहाँ उत्तर क्षत्रियकुण्डपुर सन्निवेश है, उसके निकट आ जाते हैं । वहाँ आकर उत्तर क्षत्रियकुण्डपुर सन्निवेश के ईशान कोण दिशा भाग में शीघ्रता से उतर जाते हैं । ३८१ विवेचन – चारों प्रकार के देव-देवियों का आगमन — प्रस्तुत सूत्र में भगवान् के दीक्षा ग्रहण के अभिप्राय को जानकर चारों प्रकार के देव-देवियों के आगमन का वर्णन है। साथ ही यह भी बताया है कि वे कैसे रूप, परिधान एवं चिह्न से युक्त होकर तथा कैसी ऋद्धि, द्युति व दलबल सहित, किस वाहन में, किस गति एवं स्फूर्ति से इस मनुष्यलोक में, तीर्थंकर भगवान् के सन्निवेश में आते हैं । प्रश्न होता है- • तीर्थंकर के दीक्षा समारोह में भाग लेने के लिए देवता क्यों भागे आते हैं? उत्तर का अनुमोदन यह है कि संसार में जो भी धर्मात्मा एवं धर्मनिष्ठ पुरुष होते हैं उनके धर्म कार्य के लिए देवता आते ही हैं । वे अपना अहोभाग्य समझते हैं कि हमें धर्मात्मा पुरुषों के धर्म कार्य को अनुमोदन करने का अवसर मिला। दशवैकालिक सूत्र में कहा है— देवा वि तं नम॑सति जस्स धम्मे सया मणो । 'जिसका मन सदा धर्म में ओत-प्रोत रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।' यद्यपि देवता भौतिक समृद्धि व ऐश्वर्य में सबसे आगे हैं, किन्तु उनके जीवन में संयम का अभाव है, इसलिए वे आध्यात्मिकता के धनी संयमी पुरुषों की सेवा में उनके संयम की सराहना करने हेतु आते हैं । शास्त्रकार ने देवों के आगमन की गति का भी वर्णन किया है कि वे उत्कृष्ट, शीघ्र, चपल, त्वरित दिव्यगति से आते हैं, क्योंकि उनके मन में धर्मनिष्ठ तीर्थंकर की दीक्षा में सम्मिलित होने की स्फूर्ति, श्रद्धा एवं उमंग होती है । २ 1. आचारांग मूल पाठ सटिप्पण (जम्बूविजय जी) पृ० २६८ 2. (क) दशवैकालिक अ० १, गा० १ (ख) आचारांग मूल पाठ टिप्पण पृ०२६८
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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