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पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र ७४७-७५२
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७४८. एगा हिरण्णकोडी अद्वैव अणूणया सहसहस्सा।
सूरोदयमादीयं दिज्जइ जा पायरासो त्ति॥ ११२॥ ७४९. तिण्णेव य कोडिसता अट्ठासीतिं च होंति कोडीओ।
असीतिं च सतसहस्सा एतं संवच्छरे दिण्णं ॥११३॥ लोकांतिक देवों द्वारा उद्बोध ७५०. वेसमणकुंडलधरा देवा लोगंतिया महिड्डीया।
बोहिंति य तित्थकरं पण्णरससु कम्मभूमीसु ॥११४॥ . ७५१. बंभम्मि य कप्पम्मि बोद्धव्वा कण्हराइणो मज्झे।
लोगंतिया विमाण अट्ठसु वत्था असंखेज्जा ॥११५॥ ७५२. एते देवनिकाया भगवं बोहिंति जिणवरं वीरं।
सव्वजगज्जीवहियं अरहं! तित्थं पवत्तेहि ॥११६॥ ७४७. श्री जिनवरेन्द्र तीर्थंकर भगवान् का अभिनिष्क्रमण एक वर्ष पूर्ण होते ही होगा, अतः वे दीक्षा लेने से एक वर्ष पहले सांवत्सरिक-वर्षी दान देना प्रारम्भ कर देते हैं। प्रतिदिन सूर्योदय से लेकर एक पहर दिन चढ़ने तक उनके द्वारा अर्थ का सम्प्रदान (दान) होता है ॥१११॥
७४८. प्रतिदिन सूर्योदय से लेकर एक प्रहर पर्यन्त, जब तक कि वे प्रातराश (नाश्ता) नहीं कर लेते, तब तक, एक करोड़ आठ लाख से अन्यून (कम नहीं) स्वर्णमुद्राओं का दान दिया जाता है ॥ ११२ ॥
७४९. इस प्रकार वर्ष में कुल तीन अरब, ८८ करोड ८० लाख स्वर्णमुद्राओं का दान भगवान् ने दिया॥११३॥
१. अट्ठ सु वत्था के बदले पाठान्तर है- अट्ठसु वच्छा।
तत्वार्थसूत्र ४/२ के अनुसार भी 'ब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः' लोकान्तिक देवों का ब्रह्मलोक में निवास है। अन्यय कल्पों में नही। ब्रह्मलोक को घेर कर आठ दिशाओं में आठ प्रकार के लोकान्तिक देव रहते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में ८ लोकान्तिक देवों के नाम इस प्रकार गिनाए हैं- १ सारस्वताऽदित्य-३ वन्हयरूण-४ गर्दतोय-५ तुषिताऽ-६ व्याबाध-७ मरुतोऽ-रिष्टाश्च ८।' यदि वन्हि और अरुण को अलग-अलग मानें तो इनकी संख्या ९ हो जाती है। ८ कृष्णराजियाँ हैं, दो-दो कृष्णराजियों के मध्यभाग में ये रहते हैं। मध्य में अरिष्ट रहते हैं। इस प्रकार ये ९ भेद होते हैं। तत्वार्थभाष्यकार ने आठ भेद ही बताये हैं। लोकान्तवर्ती ये ८ भेद ही होते हैं, जिन्हें आचार्य श्री ने बताए हैं, नौवां भेद रिष्ट विमान प्रस्तारवर्ती होने से होता है। इसलिए कोई दोष नहीं है। अन्य आगमों में ९ भेद ही बताए हैं। यहाँ जो आठ भेद बताए हैं, वे भी इसी अपेक्षा से समझें।
–तत्वार्थसूत्र सिद्धसेनगणि टीका ४ पृष्ठ ३०७ देखिये कल्पसूत्र ११० से ११३ तक का पाठ -"बुज्झाहि भगवं लोगनाहा! पवत्तेहि धम्मतित्थं हियसुहनिस्सेयकर ....पुष्विपि य णं .... नाणदंसणे होत्था। तएणं समणे भगवं. तेणेव उवागच्छइ।"