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________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र ७४६ ३७७ शरीर छोड़ा और १२ वाँ देवलोक प्राप्त किया, जहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध-बुद्धमुक्त बनेंगे। दीक्षा-ग्रहण का संकल्प ___७४६. तेणं कालेणं तेणं समएणं समण भगवं महावीरे णाते णातपुत्ते' २णायकुलविणिव्वते विदेहे विदेहदिण्णे विदेहजच्चे विदेह सूमाले तीसं वासाइं विदेहे त्ति कट्ट अगारमझे वसित्ता अम्मापिऊहिं कालगतेहिं देवलोगर्मणुप्पत्तेहिं समत्तपइण्णे चेच्चा हिरणं, चेच्चा सुवण्णं चेच्चा बलं, चेच्चा वाहणं, चेच्चा धण-कणग-रयण- संतसारसावतेज, विच्छड्डिता विग्गोवित्ता, विस्साणित्ता दयारेसुणं दायं पजाभाइत्ता संवच्छरं दलइत्ता, जे से हेमंताणं पढमे मासे, पढमे पक्खे मग्गसिरबहुले, तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं हत्थुत्तराहिं णक्खत्तेणं जोगोवगतेणं अभिनिक्खमणाभिप्पाए यावि होत्था। ७४६. उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर जो कि जातपत्र के नाम से प्रसिद्ध हो चुके थे, ज्ञातकुल (के उत्तरदायित्व ) से विनिवृत्त थे, अथवा ज्ञातकुलोत्पन्न थे, देहासक्ति रहित थे, विदेहजनों द्वारा अर्चनीय-पूजनीय थे, विदेहदत्ता (माता) के पुत्र थे, विशिष्ट शरीरवज्रऋषभ-नाराच-संहनन एवं समचतुरस्रसंस्थान से युक्त होते हुए भी शरीर से सुकुमार थे। __(इस प्रकार की योग्यता से सम्पन्न) भगवान् महावीर तीस वर्ष तक विदेह रूप में गृह में निवास करके माता-पिता के आयुष्य पूर्ण करके देवलोक को प्राप्त हो जाने पर अपनी ली हुई प्रतिज्ञा के पूर्ण हो जाने से, हिरण्य, स्वर्ण, सेना (बल), वाहन (सवारी), धन, धान्य, रत्न, आदि सारभूत, सत्वयुक्त, पदार्थों का त्याग करके याचकों को यथेष्ट दान देकर, अपने द्वारा दानशाला पर नियुक्त जनों के समक्ष सारा धन खुला करके, उसे दान रूप में देने का विचार प्रकट करके, अपने सम्बन्धिजनों में सम्पूर्ण पदार्थों का यथायोग्य (दाय) विभाजन, करके, संवत्सर (वर्षी) दान देकर(निश्चिन्त हो चुके, तब) हेमन्तऋतु के प्रथम मास एवं प्रथम मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष में, मार्गशीर्ष १. 'णातपुत्ते' के बदले पाठान्तर है-'णातिपुत्ते।' २. कल्पसूत्र में भगवान् के द्वारा दीक्षा पूरी तैयारी का वर्णन इस प्रकार मिलता है 'समणे भगवं महावीर दक्खे दक्खपतिन्ने, पडिरूवे आलीणे भद्दए विणीए नाए नायपुत्ते नायकलचंदे विदेहे विदेहदिन्ने विवेहजच्चे विदेहसूमाले तीसं विदेहसि वासई विदेहसि कट्ट अम्मापिईहिं देवत्तगएहिं गुरुमहत्तगरहिं अब्भणनाए....।' - कल्पसूत्र सूत्र -११० ३. 'णायकुल-विणिव्यते' के बदले पाठान्तर है- णयकुलविणिवत्ते, णायकुलनिव्वते , णायकुलणिव्वते ति विदेहे। ४. इसके बदले किसी-किसी प्रति में विदेहित्ति, 'विदेहत्ति' पाठान्तर हैं। कल्पसूत्र में 'विदेहंसि कट्ट' पाठ है। ५. 'धणकणगं' के बदले पाठान्तर है- धणधण्णक। अर्थ है-धन और धान्य।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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