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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
देवानन्दा का गर्भ - साहरण
७३५. ततो णं समणे भगवं महावीरे' अणुकंपएणं देवेणं 'जीयमेयं' ति कट्टु जे से वासाणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे आसोयबहुले तस्स णं आसोयबहुलस्स तेरसीपक्खेणं हत्थुत्तराहिं नक्खतेणं जोगोवगतेणं बासीतीहिं रातिंदिएहिं वीतिकंतेहिं तेसीतिम्मस' रातिंदियस्स परियाए वट्टमाणे दाणिमाहणकुंडपुरसंनिवेसातो उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेसंसि णाताणं खत्तियाणं सिद्धत्थस्स खत्तियस्स कासवगोत्तस्स तिसलाए' खत्तियाणीए वासिट्ठसगोत्ताए असुभाणं पोग्गलाणं अवहारं करेत्ता सुभाणं पोग्गलाणं पक्खेवं करेत्ता कुच्छिसि गब्धं साहरति, जे विय तिसलाए खत्तियाणीए कुच्छिसि गब्भे तं पिय य दाहिणमाहणकुंडपुरसंनिवेसंसि उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगोत्तस्स देवाणंदाए माहणी जालंधरायणसगोत्ताए कुच्छिसि साहरति ।
समणे भगवं महावीरे तिण्णाणोवगते यावि होत्था, साहरिज्जिस्समामि त्ति जाणति, साहरिते मि त्ति जाणति, साहरिज्जमाणे वि जाणति समणाउसो !
७३५. देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में आने के बाद श्रमण भगवान् महावीर के हित और अनुकम्पा से प्रेरित होकर 'यह जीत आचार है', यह कहकर वर्षाकाल के तीसरे मास, पंचम पक्ष अर्थात् - आश्विन कृष्ण त्रयोदशी के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, ८२ वीं रात्रिदिन के व्यतीत होने और ८३ वें दिन की रात को दक्षिण ब्राह्मणकुण्डपुर सन्निवेश से उत्तर क्षत्रियकुण्डपुर
१. इस सम्बन्ध में कल्पसूत्र में विस्तृत पाठ है-जं रयणि च समणे भगवं महावीरे... गब्भत्ताए वक्कते तं रयप्प च णं सा देवाणंदा.. चोद्दस महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा ॥ ४ ॥ - तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे" हियाणुकंपणं देवेणं हरिणेगमेसिणा तिसलाए खत्तियाणीए अव्वाबाहं अव्वाबाहेणं कुच्छिसि साहरिए ॥ ३० ॥ - कल्पसूत्र सूत्र ४ से ३० तक मूल (देवेन्द्रमुनि) पृ. ४१ से ७६ २. 'अणुकंपएणं' के बदले 'हियाअणुकंपएणं' । इसकी व्याख्या करते हुए चूर्णिकार कहते हैं-हिताणु कंपितं अप्पणो सक्कस्सय, अणुकंपओ तित्थगरस्स अदुवित्तए ति । 'हिताणुकंपित्त- शक्रेन्द्र का अपना हित, अथवा तीर्थंकर के प्रति अनुकम्पा से प्रेरित ।
३.
'आसोयबहुले' के बदले पाठान्तर है-'अस्सोयबहुले' । अर्थ समान है।
४. 'तेसीतिमस्स ' के बदले पाठान्तर हैं-तेसीति राई, 'तेसीराई' तेसीयमस्स ।'
५. 'तिसलाए' के बदले पाठान्तर है- तिसिलाए ।
६. 'साहरितेमि त्ति जाणति, साहरिज्जमाणे वि जाणति' के बदले पाठान्तर है - साहरिज्जमाणे न जाणति, साहरिएमि त्ति जाणइ ।' कल्पसूत्र में भी ऐसा पाठ मिलता है- 'साहरिजमाणे नो जाणइ साहरिएम त्ति जाणइ ।' इसके टीकाकार आचार्य पृथ्वीचन्द्र ने 'तिन्नाणोवगए साहरिज्जिस्सामि' इत्यादि 'च्यवनवद् ज्ञेयम्' लिखा है, परन्तु च्यवन और संहरण में बहुत अन्तर है। च्यवन स्वतः होता है और संहरण पर कृत। च्यवन एक समय में हो सकता है, किन्तु संहरण में असंख्यात समय लगते हैं। इस दृष्टि से भी आचारांग का पाठ ही अधिक तर्कसंगत और आगमसिद्ध है, क्योंकि संहरण में असंख्यात समय लगते हैं, अतः अवधिज्ञानी उसे जान सकता है। प्रस्तुत सूत्र में यह भूल कब और कैसे हुई, यह विद्वानों के लिए अन्वेषण का विषय है । 1 - सं.