________________
आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
हुए हैं तो उन्हें प्रासुक और एषणीय जानकर प्राप्त होने पर ग्रहण कर ले।
विवेचन-औषधियाँ क्या और उनका ग्रहण कब और कैसे? - 'औषधि' शब्द बीज वाली वनस्पति, खास तौर से गेहूँ, जौ, चावल, बाजरा, मक्का आदि अन्न के अर्थ में यहाँ प्रयुक्त हुआ है। पक जाने पर भी गेहूँ आदि अनाज का अखण्ड दाना सचित्त माना जाता है।' क्योंकि उसमें पुनः उगने की शक्ति विद्यमान है। इसमें से फलित हुआ कि निम्न ग्यारह परिस्थितियों में अन्न अप्रासुक और अनेषणीय होने से साधु के लिए ग्राह्य नहीं होता -
(१) अनाज का दाना अखण्डित हो। (२) उगने की शक्ति नष्ट न हुयी हो। (३) दाल आदि की तरह द्विदल न किया हुआ हो। (४) तिरछा छेदन न हुआ हो। (५) अग्नि आदि शस्त्र से परिणत होकर जीवरहित न हुआ हो। (६) मूंग आदि की तरह कच्ची फली हो। (७) पूरी तरह कूटा, पूँजा, या पीसा न गया हो। (८) गेहूँ, बाजरी, मक्की आदि के कच्चे दाने, दाग में एक बार थोड़े से सेंके हों। (९) वह अन्न यदि अचित्त होने पर भी उसमें घुण, इल्ली आदि जीव पड़े हों। (१०) उस पके हुये आहार में रसज जीव जन्तु पड़ गए हों, या मक्खी आदि उड़ने वाला
कोई जीव पड़ गया हो या चीटियाँ पड़ गयी हों। (११) जो अन्न अपक्व हो या दुष्पक्व हो।।
इसके विपरीतस्थिति में गेहूँ आदि अन्न या अन्न से निष्पन्न वस्तु प्रासुक, अचित्त, कल्पनीय और एषणीय हो तो वह प्रासुक एषणीय अन्नादि (औषधि) साधु वर्ग के लिए ग्राह्य है। २
कसिणाओ- कृत्स्न का अर्थ है- सम्पूर्ण (अखण्डित) तथा अनुपहत। ३ ।।
सासियाओ-शब्द का 'स्वाश्रया' रूपान्तर करके वृत्तिकार ने व्याख्या की है- जीव की स्व-अपनी उत्पत्ति के प्रति जिनमें आश्रय है वे स्वाश्रय हैं, अर्थात् जिनकी योनि नष्ट न हुई हो। चूर्णिकार ने इसका अर्थ किया है, जो प्ररोहण में उगने में समर्थ हों, वे स्वाश्रिता है। आगम में कई औषधियों (बीज रूप अन्न) के अविनष्ट योनिकाल की चर्चा मिलती है। जैसे कि कहा है - 'एतेसिंणं भंते! सालीणं केवइअंकालं जोणी संचिट्ठइ ?' अर्थात् भंते! इन शाली आदि धान्यों की योनि कितने काल तक रहती है? ४ कई अनाजों की उगने की शक्ति तीन वर्ष बाद, कइयों की पांच और सात वर्ष बाद समाप्त हो जाती है। १. 'ओसहीओ सचित्ताओ पडिपन्नाओ अखंडिताओ'-आचारांग चूर्णि मू० पा० टि० पृ० १०५ २. आचा० टीका पत्रांक ३२२ पर से ३. आचा० टीका पत्रांक ३२२ पर से ४. आचा० टीका पत्रांक ३२२ पर से