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दशम अध्ययन : सूत्र ६४६-६६७
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हों, पंकबहुल आयतन हों, पवित्र जलप्रवाह वाले स्थान हों, जलसिंचन करने के मार्ग हों, ऐसे तथा अन्य इसी प्रकार के जो स्थण्डिल हों, उन पर मल-मूत्र विसर्जन न करे।
६६४. साधु या साध्वी ऐसे स्थण्डिल को जाने, जो कि मिट्टी की नई खान हों, नई गोचर भूमि हों, सामान्य गायों के चारागाह हों, खाने हों, अथवा अन्य उसी प्रकार को कोई स्थण्डिल हो तो उसमें उच्चार-प्रस्रवण का विसर्जन न करे।
६६५. साधु या साध्वी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने, वहाँ डालप्रधान शाक के खेत हैं, पत्रप्रधान शाक के खेत हैं, मूली, गाजर आदि के खेत हैं, हस्तंकुर वनस्पति विशेष के क्षेत्र हैं, उनमें तथा अन्य उसी प्रकार के स्थण्डिल में मल-मूल विसर्जन न करे।
६६६. साधु या साध्वी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने, जहाँ बीजक वृक्ष का वन है, पटसन का वन है, धातकी (आंवला) वृक्ष का वन है, केवड़े का उपवन है, आम्रवन है, अशोकवन है, नागवन है, या पुन्नाग वृक्षों का वन है, ऐसे तथा अन्य उस प्रकार के स्थण्डिल, जो पत्रों, पुष्पों, फलों, बीजों का हरियाली से युक्त हों, उनमें मल-मूत्र विसर्जन न करे।
६६७. संयमशील साधु या साध्वी स्वपात्रक (स्वभाजन) लेकर एकान्त स्थान में चला जाए, जहाँ पर न कोई आता-जाता हो और न कोई देखता हो, या जहाँ कोई रोक-टोक न हो, तथा जहाँ द्वीन्द्रिय आदि जीव-जन्तु, यावत् मकड़ी के जाले भी न हों, ऐसे बगीचे या उपाश्रय में अचित्त भूमि पर बैठकर साधु या साध्वी यतनापूर्वक मल-मूत्र विसर्जन करे।
उसके पश्चात् वह उस (भरे हुए मात्रक) को लेकर एकान्त स्थान में जाए, जहाँ कोई न देखता हो और न ही आता-जाता हो, जहाँ पर किसी जीवजन्तु की विराधना की सम्भावना न हो, यावत् मकड़ी के जाले न हों, ऐसे बगीचे में या दग्धभूमि वाले स्थण्डिल में या उस प्रकार के किसी अचित्त निर्दोष पूर्वोक्त निषिद्ध स्थण्डिलों के अतिरिक्त स्थण्डिल में साधु यतनापूर्वक मल-मूत्र परिष्ठापन (विसर्जन) करे।
विवेचन–मल-मूत्र विसर्जन : कैसे स्थण्डिल पर करे, कैसे पर नहीं? -सूत्र ६४६ से ६६७ तक २२ सूत्रों में मल-मूत्र विसर्जन के लिए निषिद्ध और विहित स्थण्डिल का निर्देश किया गया है। इसमें से तीन सूत्र विधानात्मक हैं, शेष सभी निषेधात्मक हैं। निषेधात्मक स्थण्डिल सूत्र संक्षेप में इस प्रकार हैं
(१) जो अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त हो।
(२) जो स्थण्डिल एक या अनेक साधर्मिक साधु या साधर्मिणी साध्वी के उद्देश्य से, अथवा श्रमणादि की गणना करके उनके उद्देश्य से निर्मित हो, साथ ही अपुरुषान्तरकृत यावत् अनीहृत हो।
(३) जो बहुत से शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण यावत् अतिथियों के उद्देश्य से निर्मित हो, साथ ही अपुरुषान्तरकृत यावत् अनीहत हो।