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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध निषेध एवं विधान किया गया है। इसमें शय्या-अध्ययन (द्वितीय) के सूत्र ४१२ से ४१७ तक के समस्त सूत्रों का वर्णन समुच्चय-रूप में कर दिया गया है। इसीलिए यहाँ शास्त्रकार ने स्वयं कहा है-'एवं सेज्जागमेण णेतव्वं जाव उदयपसूयाणि।' प्रस्तुत सूत्रद्वय में शय्या-अध्ययन के ४१२ सूत्र का मन्तव्य दे दिया है। अब ४१३ सूत्र से ४१७ तक के सूत्रों का संक्षेप में निषीधिका संगत रूप इस प्रकार होगा -
(१) निर्ग्रन्थ को देने की प्रतिज्ञा से एक साधर्मिक साधु के निमित्त से आरम्भपूर्वक बनायी हुई क्रीत, पामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट और अभिहत निषीधिका और वह भी पुरुषान्तरकृत हो या अपुरुषान्तरकृत, यावत् आसेवित हो या अनासेवित, तो ऐसी निषीधिका का उपयोग न करे।
(२) इसी प्रकार की निषीधिका बहुत-से साधर्मिकों से उद्देश्य से निर्मित हो, तथैव एक साधर्मिणी या बहुत-सी साधर्मिणियों के उद्देश्य से निर्मित तथाप्रकार की हो तो उसका भी उपयोग न करे।
(३) इसी प्रकार बहुत-से श्रमण-ब्राह्मण आदि को गिन-गिनकर बनाई हुई तथाप्रकार की निषीधिका हो तो उसका भी उपयोग न करे।
(४) बहुत-से श्रमण-ब्राह्मण आदि के निमित्त से निर्मित्त, क्रीत आदि तथा अपुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो तो उसका उपयोग न करे।
(५) वैसी निषीधिका पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो तो उपयोग करे।
(६) गृहस्थ द्वारा काष्ठादि द्वारा संस्कृत यावत् संप्रधूपित (धूप दी हुई) तथा अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित निषीधिका हो, तो उसका उपयोग न करे।
(७) वैसी निषीधिका यदि पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो तो उपयोग करे।
(८) गृहस्थ द्वारा साधु के उद्देश्य से उसके छोटे द्वार बड़े बनवाये गए हों, बड़े द्वार छोटे, यावत् उसमें से भारी सामान निकाल कर खाली किया गया हो, ऐसी निषीधिका अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित हो तो उसका उपयोग न करे।
(९) यदि वह पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो तो उपयोग करे।
(१०) वहाँ जल में उत्पन्न कंद आदि यावत् हरी आदि साधु के निमित्त उखाड़ कर साफ करके गृहस्थ निकाले तथा ऐसी निषीधिका अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित हो तो उसका उपयोग न करे।
(११) यदि वैसी निषीधिका पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो गई हो तो उसका उपयोग कर सकता है।
१. आचारांग सूत्र ४१२ से ४१७ तक की वृत्ति पत्रांक ३६० पर से