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प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक: सूत्र ३२४
अग्राह्य और असेव्य आहार - सामान्यतया उत्सर्गमार्ग में साधुगण के लिए भिक्षा में प्राप्त होने वाला आहार (दो कारणों से) अग्राह्य और असेव्य हो जाता है- (१) वह आहार अप्रासुक और (२) अनेषणीय हो ।
अप्राक का अर्थ है - सचित्त - जीव सहित और अनेषणीय का अर्थ है - त्रिविध एषणा ( गवेषणा, ग्रहणैषणा, ग्रासैषणा) के दोषों से युक्त । १ वह आहार भी सचित्तवत् माना जाता है
१. भिक्षाचरी के प्रकरण में प्राय: 'अफासुयं'' अणेसणिज्जं ' इन दो शब्दों का साथ-साथ व्यवहार हुआ है। अप्रासुक का अर्थ है- सचित्त या सचित्त - मिश्रित आहार ।
अप्राक की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है- 'न प्रगता असवोऽसुमन्तो यस्मात् तदप्रासुकम्' जो जीव रहित न हुआ हो, वह अप्रासुक है।- (अभि० राजेन्द्र० भाग १, पृष्ठ ६७५) अनेषणीय आहार वह है जो उद्गम आदि दोषों से युक्त हो। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार हैएष्यते गवेष्यते उद्गमादि दोषविकलतया साधुभिर्यद् तदेषणीयं, कल्प्यं, तन्निषेधादनेषणीयं - ( अभि० रा० भाग १, पृ० ४४३ ) - उद्गमादि दोषों से रहित जिस आहार की साधु द्वारा गवेषणा की जाती है, वह एषणीय है, कल्पनीय है। इससे विपरीत अकल्पनीय आहार अनेषणीय है ।
भिक्षाचरी के उद्गम आदि बयालीस दोष सूत्रों में बताये गये हैं। वे क्रमशः इस प्रकार हैं
गृहस्थ के द्वारा लगने वाले दोष उद्गम के दोष कहलाते हैं। वे सोलह हैं, जो इस प्रकार हैं(१) आहाकम्म ( आधाकर्म ) ) - सामान्य रूप से साधु के उद्देश्य से तैयार किया हुआ आहार लेना । (२) उद्देसिय (औद्देशिक) - किसी विशेष साधु के निमित्त बनाया हुआ आहार लेना । (३) पूइकम्मे (पूतिकर्म ) • विशुद्ध आहार में आधाकर्मी आहार का थोड़ा-सा भाग मिला हुआ हो तो
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पूतिकर्म दोष है ।
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(४) मीसजाए ( मिश्रजात ) गृहस्थ के लिए और साधु के लिए सम्मिलित बनाया हुआ आहार लेना । (५) ठवणे (स्थापना) - साधु के निमित्त रखा हुआ आहार लेना । (६) पाहुडियाए (प्राभृतिका ) - किये जाने पर आहार लेना । (७) पाओअर ( प्रादुष्करण) अंधेरे में प्रकाश करके दिया जाने वाला आहार लेना । (८) कीए (क्रीत) साधु के लिए खरीदा हुआ आहार लेना ।
साधु को आहार देने के लिए मेहमानों की जीमनवार को आगे-पीछे
(९) पामिच्चे ( प्रामित्य ) (१०) परियट्टए (परिवर्त) आहार लेना । (११) अभिहडे ( अभिहृत ) (१२) उब्भिन्ने ( उभिन्न ) - दिया जाने वाला आहार लेना (१३) मालाहडे ( मालाहृत)
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जहाँ पर चढ़ने में कठिनाई हो, वहाँ से उतार कर दिया जाने वाला आहार लेना या इसी प्रकार की नीची जगह से उठाकर दिया जाने वाला आहार लेना ।
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(१४) आच्छेच्जे (आच्छेद्य) (१५) अणिसिट्टे (अनिसृष्ट )
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साधु के निमित्त किसी से उधार लिया हुआ आहार लेना ।
साधु के लिए सरस-नीरस वस्तु की अदला-बदली करके दिया जाने वाला
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सामने लाया हुआ आहार लेना ।
गृह में रखे हुए, मिट्टी, चपड़ी आदि से छाये हुए पदार्थ को उघाड़ कर
निर्बल पुरुष से छीना हुआ - अन्याय पूर्वक लिया हुआ आहार लेना । साझे की वस्तु साझेदार की सम्मत्ति के बिना दिये जाने पर लेना ।