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सप्तम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र ६२१-६३२
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मकड़ी के जालों से रहित, किन्तु वे तिरछे कटे हुए नहीं हैं, न खण्डित हैं तो उन्हें अप्रासुक एवं अनेषणीय मानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे।
६२५. यदि साधु या साध्वी यह जाने कि आम अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से रहित हैं, साथ ही तिरछे कटे हुए हैं और खण्डित हैं, तो उन्हें प्रासुक और एषणीय जानकर प्राप्त होने पर ग्रहण करे।
६२६. यदि साधु या साध्वी आम का आधा भाग, आम की पेशी (फाडी - चौथाई भाग), आम की छाल या आम की गिरी, आम का रस, या आम के बारीक टुकड़े खाना-पीना चाहे, किन्तु वह यह जाने कि वह आम का अर्ध भाग यावत् आम के बारीक टुकड़े अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त हैं तो उन्हें अप्रासुक एवं अनेषणीय मानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे।
६२७. यदि साधु या साध्वी यह जाने कि आम का आधा भाग (फांक) यावत् आम के छोटे बारीक टुकड़े अंडों यावत् मकड़ी के जालों से तो रहित हैं, किन्तु वे तिरछे कटे हुए नहीं हैं, और न ही खण्डित हैं तो उन्हें भी अप्रासुक एवं अनेषणीय जान कर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे।
६२८. यदि साधु या साध्वी यह जान ले कि आम की आधी फांक से लेकर आम के छोटे बारीक टुकड़े तक अंडों यावत् मकड़ी के जालों से रहित हैं, तिरछे कटे हुए भी हैं और खण्डित भी हैं तो उस प्रकार के आम्र-अवयव को प्रासुक एवं एषणीय मानकर प्राप्त होने पर ग्रहण कर ले।
६२९. वह साधु या साध्वी यदि इक्षुवन में ठहरना चाहे तो जो वहाँ का स्वामी या उसके द्वारा नियुक्त अधिकारी हो, उससे पूर्वोक्त विधिपूर्वक क्षेत्र-काल की सीमा खोलकर अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करके वहाँ निवास करे। उस इक्षुवन की अवग्रहानुज्ञा ग्रहण करने से क्या प्रयोजन? (शास्त्रकार कहते हैं—) यदि वहाँ रहते हुए साधु कदाचित् ईख खाना या उसका रस पीना चाहे तो पहले यह जान ले कि वे ईख अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त तो नहीं हैं? यदि वैसे हों तो साधु उन्हें अप्रासक अनेषणीय जानकर छोड दे। यदि वे अंडों यावत मकडी के जालों से यक्त तो नहीं हैं. किन्तु तिरछे कटे हुए या टुकड़े-टुकड़े किये हुए नहीं हैं, तब भी उन्हें पूर्ववत् जानकर न ले। यदि साधु को यह प्रतीति हो जाए कि वे ईख अंडों यावत् मकड़ी के जालों से रहित हैं, तिरछे कटे हुए तथा टुकड़े-टुकड़े किये हुए हैं तो उन्हें प्रासुक एवं एषणीय जानकर प्राप्त होने पर वह ले सकता है। यह सारा वर्णन आम्रवन में ठहरने तथा आम्रफल ग्रहण करने, न करने की तरह समझना चाहिए।
६३०. यदि साधु या साध्वी ईख के पर्व का मध्यभाग, ईख की गँडेरी, ईख का छिलका या ईख के अन्दर का गर्भ, ईख की छाल या रस, ईख के छोटे-छोटे बारीक टुकड़े, खाना या पीना चाहे व पहले वह जान जाए कि वह ईख के पर्व का मध्यभाग यावत् ईख के छोटे-छोटे बारीक टुकड़े अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त हैं, तो उस प्रकार के उन इक्षु-अवयवों को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर ग्रहण न करे।
६३१.साधु साध्वी यदि यह जाने कि वह ईख के पर्व का मध्यभाग यावत् ईख के छोटे-छोटे