________________
आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
णिक्खम-पवेसाउ (ए) जाव १ चिंताए, तहप्पगारे उवस्सए णो उग्गहं ओगिण्हेज्जा वा २ । २ ६१२. साधु या साध्वी यदि ऐसे अवग्रह (स्थान) को जाने, जो सचित्त, स्निग्ध पृथ्वी यावत्. जीव-जन्तु आदि से युक्त हो, तो इस प्रकार के स्थान की अवग्रह- अनुज्ञा एक बार या अनेक बार ग्रहण न करे ।
२८६
६१३. साधु या साध्वी यदि ऐसे अवग्रह (स्थान) को जाने, जो भूमि से बहुत ऊँचा हो, ठूंठ, देहली, खूँटी, ऊखल, मूसल आदि पर टिकाया हुआ एवं ठीक तरह से बंधा हुआ या गड़ा या रखा हुआ न हो, अस्थिर और चल-विचल हो, तो ऐसे स्थान की भी अवग्रह- अनुज्ञा एक या अनेक बार ग्रहण न करे ।
६१४. साधु या साध्वी ऐसे अवग्रह (स्थान) को जाने, जो घर की कच्ची पतली दीवार पर या नदी के तट या बाहर की भींत, शिला या पत्थर के टुकड़ों पर या अन्य किसी ऊँचे व विषम स्थान पर निर्मित हो, तथा दुर्बद्ध, दुर्निक्षिप्त, अस्थिर और चल-विचल हो तो ऐसे स्थान की भी अवग्रह- अनुज्ञा एक या अधिक बार ग्रहण न करे ।
६१५. साधु-साध्वी ऐसे अवग्रह को जाने जो, स्तम्भ, मचान, ऊपर की मंजिल, प्रासाद पर या तलघर में स्थित हो या उस प्रकार के किसी उच्च स्थान पर हो तो ऐसे दुर्बद्ध यावत् चलविचल स्थान की अवग्रह अनुज्ञा एक या अधिक बार ग्रहण न करे ।
६१६. साधु या साध्वी यदि ऐसे अवग्रह को जाने, जो गृहस्थों से संसक्त हो, अग्नि और जल से युक्त हो, जिसमें स्त्रियाँ, छोटे बच्चे अथवा क्षुद्र (नपुंसक) रहते हों, जो पशुओं और उनके योग्य खाद्य सामग्री से भरा हो, प्रज्ञावान साधु के लिए ऐसा आवास स्थान निर्गमन-प्रवेश, वाचना यावत् धर्मानुयोग - चिन्तन के योग्य नहीं है। ऐसा जानकर उस प्रकार के गृहस्थ यावत् स्त्री, क्षुद्र तथा पशुओं तथा उनकी खाद्य सामग्री से परिपूर्ण उपाश्रय की अवग्रह- अनुज्ञा ग्रहण नही करनी चाहिए ।
६१७. साधु या साध्वी जिस अवग्रह (स्थान) को जाने कि उसमें जाने का मार्ग गृहस्थ के घर के बीचोंबीच से है या गृहस्थ के घर से बिल्कुल सटा हुआ है तो प्रज्ञावान् साधु को ऐसे स्थान में निकलना और प्रवेश करना तथा वाचन यावत् धर्मानुयोग - चिन्तन करना उचित नहीं है, ऐसा जानकर उस प्रकार के गृहपति गृह प्रतिबद्ध उपाश्रय की अवग्रह- अनुज्ञा ग्रहण नहीं करनी चाहिए।
६१८. साधु या साध्वी ऐसे अवग्रह (स्थान) को जाने, जिसमें गृहस्वामी यावत् उसकी नौकरानियाँ परस्पर एक दूसरे पर आक्रोश करती हों, लड़ती -झगड़ती हों तथा परस्पर एक दूसरे
१. यहाँ 'जाव' शब्द सूत्र ३४८ के अनुसार 'निक्खमण-पवेसाउ' से लेकर 'धम्मचिंताए' तक के पाठ का सूचक है।
२. ओगिण्हेज्ज वा के आगे '२' का अंक 'पगिण्हेज्ज वा' का सूचक है।