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________________ २५८ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध ५८३. कोई साधु मुहूर्त आदि नियतकाल के लिए किसी दूसरे साधु से प्रातिहारिक वस्त्र की याचना करता है और फिर किसी दूसरे ग्राम आदि में एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन अथवा पाँच दिन तक निवास करके वापस आता है। इस बीच वह वस्त्र उपहत (खराब या विनष्ट) हो जाता है। (तो,) लौटाने पर वस्त्र का (असली) स्वामी उसे वापिस लेना स्वीकार नहीं करे, लेकर दूसरे साधु को नहीं देवे; किसी को उधार भी नहीं देवे, उस वस्त्र के बदले दूसरा वस्त्र भी नहीं लेवे, दूसरे के पास जाकर ऐसा भी नहीं कहे कि- आयुष्मन् श्रमण ! आप इस वस्त्र को धारण करना चाहते हैं, इसका उपभोग करना चाहते हैं? उस दृढ़ वस्त्र के टुकड़े-टुकड़े करके परिष्ठापन भी नहीं करे-फैंके भी नहीं। किन्त उस उपहत वस्त्र को वस्त्र का स्वामी उसी उपहत करने वाले साध को दे, परन्तु स्वयं उसका उपभोग न करे।' वह एकाकी (ग्रामान्तर जाने वाला) साधु इस प्रकार की (उपर्युक्त ) बात सुनकर उस पर मन में यह विचार करे कि सबका कल्याण चाहने वाले एवं भय का अन्त करने वाले ये पूज्य श्रमण उस प्रकार के उपहत (दूषित) वस्त्रों को उन साधुओं से , जो कि इनसे मुहूर्त भर आदि काल का उद्देश्य करके प्रातिहारिक ले जाते हैं, और एक दिन से लेकर पाँच दिन तक किसी ग्राम आदि में निवास करके आते हैं. (तब से उस वस्त्र को ) न स्वयं (वापस) ग्रहण करते हैं. न परस्पर एक दूसरे को देते हैं, यावत् न वे स्वयं उन वस्त्रों का उपयोग करते हैं, अर्थात् वे वस्त्र उसी/उन्हीं को दे दते हैं। इस प्रकार बहुवचन का आलापक कहना चाहिए। अत: मैं भी मुहूर्त आदि का उद्देश (नाम ले) करके इनसे प्रातिहारिक वस्त्र माँगकर एक दिन से लेकर पाँच दिन तक ग्रामान्तर में ठहरकर वापस लौट आऊँ, (इन्हें वह उपहत वस्त्र वापस देने लगूंगा तो ये लेंगे नहीं, ये मुझे ही दे देंगे) जिससे यह वस्त्र (फिर) मेरा हो जाएगा। ऐसा विचार करने वाला साधु मायास्थान का स्पर्श करता है, अतः ऐसा विचार न करे। विवेचन-प्रातिहारिक वस्त्र का ग्रहण, और प्रत्यर्पण- एक साधु दूसरे साधु से निर्धारित समय के बाद वापस लौटा देने की दृष्टि से वस्त्र (प्रातिहारिक) लेता है, किन्तु अकस्मात् आचार्य आदि के द्वारा उसे कहीं दूसरे गाँव भेजे जाने पर वह एकाकी जाता है। वहाँ चार-पाँच दिन अकेला रह जाता है, ऐसी स्थिति में उस वस्त्र पर सोने या ओढ़ने आदि से वह वस्त्र खराब हो जाता है। वह वापस उस वस्त्र को जब वस्त्रस्वामी साध को देने लगे तो वह (वस्त्रस्वामी) उसे न तो स्वयं ग्रहण करे, न दूसरे को दे, न उधार दे, न ही अदल-बदल करे, न ही उस मजबूत वस्त्र के टुकड़े १. वृत्तिकार का स्पष्टीकरण- 'तथाप्रकारं वस्त्रं 'ससंधियं' ति उपहतं स्वतो वस्त्रस्वामी न परिभजीत अपितु तस्यैवोपहन्तुः समर्पयेत् । अन्यस्मै वैकाकिनो गंतुः समर्पयेद्। -पत्र ३९७ २. सूत्र के प्रथमार्ध में जो बात एक साधु के लिए कही है, वही बात यहाँ बहुवचन में बहुत साधुओं के लिए कह लेनी चाहिए।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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