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पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक: सूत्र ५५४
भांगिक
इसके दो अर्थ हैं— १ . अलसी से निष्पन्न वस्त्र १. वंशकरील के मध्य भाग को कूट कर बनाया जाने वाला वस्त्र । १
पटसन (पाट) लोध की छाल, तिरीड़वृक्ष की छाल से बना हुआ वस्त्र | ताड़ आदि के पत्रों के समूह से निष्पन्न वस्त्र | कपास (रुई) से बना हुआ वस्त्र ।
तूलकंड
आक आदि की रूई से बना हुआ वस्त्र ।
वर्तमान में साधु-साध्वीगण प्रायः सूती और ऊनी वस्त्र धारण करते हैं । किन्तु तरुण साधु के लिए एक ही वस्त्र धारण करने की परम्परा आज तो समाप्तप्राय: है । इस सम्बन्ध में वृत्तिकार स्पष्टीकरण करते हैं कि 'दृढ़बली तरुण साधु आचार्यादि के लिए जो अन्य वस्त्र रखता है उसका स्वयं उपयोग नहीं करता। जो साधु बालक है, वृद्ध या दुर्बल है, या हीन - संहनन है वह यथासमाधि दो, तीन आदि वस्त्र भी धारण कर सकता है। जिनकल्पिक अपनी प्रतिज्ञानुसार वस्त्र धारण नहीं करता है वहाँ अपवाद नहीं है।
सानज
पोत्रक
खोमियं
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साध्वी के लिए चार चादर धारण करने का विधान किया है, उनमें से दो हाथवाली चादर उपाश्रय में ओढे, तीन हाथवाली भिक्षाकाल में तथा स्थंडिलभूमि के लिए जाते समय ओढ़े तथा चार हाथवाली चादर धर्मसभा आदि में बैठते समय ओढे ।
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'जुगवं ' का अर्थ प्राकृत-कोश के अनुसार • समय के उपद्रव से रहित । ३ बौद्ध श्रमणों के लिए ६ प्रकार के वस्त्र विहित हैं. • कौशेय, कंबल, कार्पासिक, क्षौम (अलसी की छाल से बना) शाणज (सन से बना ) भंगज (भंग की छाल से बना हुआ ) वस्त्र । ब्राह्मणों (द्विजों ) के लिए निम्नोक्त ६ प्रकार के वस्त्र मनुस्मृति में अनुमत हैंकृष्ण, मृगचर्म, रुरु (मृगविशेष) चर्म, एवं छाग-चर्म, सन का वस्त्र, क्षुपा (अलसी) एवं मेष (भेड़) के लोम से बना वस्त्र । ५
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१. मूल सर्वास्तिवाद के विनयवस्तु पृ. ९२ में भी ' भांगेय' वस्त्र का उल्लेख है । यह वस्त्र भांग वृक्ष के तंतुओं से बनाया जाता था। अभी भी कुमायूं (उ.प्र.) में इसका प्रचार है, वहाँ ' भागेला' नाम से जानते हैं। - डा. मोतीचंद; भारती विद्या . १ / १/४१
(क) आचारांग चूर्णि मू. पाठ. टिप्पण पृ. २१० (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक ३९२
(ग) 'ठाणं' – विवेचन (मुनि नथमलजी) स्था. ५ पृ. १९० पृ. ६४२, ६४३
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(घ) वृहत्कल्पभाष्य गा. ३६६१, ३६६२, ३६६३ वृत्ति
(ड) निशीथ ६ / १०, १२ की चूर्णि में
(घ) तिरीडपट्ट की व्याख्या (लोध वृक्ष की छाल से बना ) - आचारांग टीका पत्र ३४२
३. पाइय-सद्द - महण्णवो पृ. ३५९.
४. विनयपिटक महावग्ग पृ. ८/२/५ पृ. २७५ (राहुलसांकृत्यायन)
५. मनुस्मृति अ. २ श्लो. ४०-४१