________________
२३२
आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
से २४, इनके शुभ-अशुभ दो-दो भेद होने से ४८ पर राग और द्वेष होने से ९६ हुए। १
साधु को पंचेन्द्रिय के विषयों में जो जैसा है, वैसा तटस्थ भावपूर्वक कहना चाहिए, भाषा का प्रयोग करते समय राग या द्वेष को मन एवं वाणी में नहीं मिलने देना चाहिए। यही मत चूर्णिकार का
भाषण-विवेक
५५१. से भिक्खू वा २ वंता २ कोहं च माणंच मायंच लोभं च अणुवीयि णिट्ठाभासी निसम्मभासी अतुरियभासी विवेगभासी समियाए संजते भासं भासेजा।
५५१. साधु या साध्वी क्रोध, मान, माया, और लोभ का वमन (परित्याग) करके विचारपूर्वक निष्ठाभासी हो, सुन-समझ कर बोले, अत्वरितभाषी एवं विवेकपूर्वक बोलने वाला हो और भाषासमिति से युक्त संयत भाषा का प्रयोग करे।
विवेचन सारांश- इस सूत्र में समग्र अध्ययन का निष्कर्ष दे दिया है। इसमें शास्त्रकार ने साधु को भाषा प्रयोग करने से पूर्व आठ विवेक सूत्र बताए हैं
(१) क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करके बोले। (२) प्रासंगिक विषय और व्यक्ति के अनुरूप विचार (अवलोकन) चिन्तन करके बोले। (३) पहले उस विषय का पूरा निश्चयात्मक ज्ञान कर ले, तब बोले। . (४) विचारपूर्वक या पूर्णतया सुन-समझ कर बोले। (५) जल्दी-जल्दी या अस्पष्ट शब्दों में न बोले। (६) विवेकपूर्वक बोले। (७) भाषा-समिति का ध्यान रखकर बोले। (८) संयत-परिमित शब्दों में बोले। ५
५५२. एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्वडेहिं सहितेहिं सदा जएज्जासि त्ति बेमि।
५५२. यही (भाषा के प्रयोग का विवेक ही) वास्तव में साधु-साध्वी के आचार का सामर्थ्य है, जिसमें वह सभी ज्ञानादि अर्थों से युक्त होकर सदा प्रयत्नशील रहे। -ऐसा मैं कहता हूं।
॥"भाषाजात"चतुर्थ अध्ययन समाप्त॥ १. कुल सब मिलाकर- १२+६०+१२+६०+९६-२४०-इस प्रकार समझना चाहिए। २. आचारांग चूर्णि मू. पाठ टि. पृ. २०० 'सुब्भिसद्दे रागो, इतरे दोसो।'
वंता का भावार्थ वृत्तिकार करते हैं- 'स भिक्षुः क्रोधादिकं वान्त्वा एवं भूतो भवेत्।'- वह भिक्षु क्रोधादि का वमन (त्याग) करके इस प्रकार का हो। 'विवेगभासी' का अर्थ चूर्णिकार करते हैं—विविच्यते येन कर्म तं भाषेत-जिस भाषा-प्रयोग से कर्म
आत्मा से पृथक हो, वैसी भाषा बोले। ५. आचारांग मूल तथा वृत्ति पत्रांक ३९१ ।