________________
चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र ५३३-५४८
२२५
५४६. से भिक्खू वा २ बहुसंभूया वणफला पेहाए एवं वदेजा, तंजहा—असंथडा ति वा, बहुणिव्वट्टिमफला ति वा, बहूसंभूया ति वा, भूतरूवा ति वा। एतप्पगारं भासं असावजं जाव भासेजा।३।।
५४७. से भिक्खू वा २ बहुसंभूताओ ओसधीओ पेहाए तहा वि ताओ णो एवं वदेज्जा, तंजहा- पक्का ति वा, णीलिया ति वा, छवीया ति वा, लाइमा ति वा, भज्जिमा ति वा, बहुखज्जा ति वा। एतप्पगारं भासं सावजं जाव णो भासेज्जा।
५४८. से भिक्खू वा २ बहुसंभूताओ ओसहीओ पेहाए तहा वि एवं वदेजा, तंजहारूढा ति वा बहुसंभूया ति वा, थिरा ति वा, ऊसढा ति वा, गब्भिया ति वा, पसूया ति वा, ससारा ति वा। एतप्पगारं [ भासं] असावजं जाव भासेजा।
__५३३. संयमशील साधु या साध्वी यद्यपि अनेक रूपों को देखते हैं तथापि उन्हें देखकर इस प्रकार (ज्यों के त्यों) न कहे। जैसे कि गण्डी (गण्ड-कण्ठ) माला रोग से ग्रस्त या जिसका पैर सूज गया हो को गण्डी, कुष्ठ रोग से पीड़ित को कोढ़िया, यावत् मधुमेह से पीड़ित रोगी को मधुमेही कहकर पुकारना, अथवा जिसका हाथ कटा हुआ है उसे हाथकटा, पैरकटे को पैरकंटा, नाक कटा हुआ हो उसे नकटा, कान कट गया हो उसे कनकटा और ओठ कटा हुआ हो, उसे ओठकटा कहना। ये और अन्य जितने भी इस प्रकार के हों, उन्हें इस प्रकार की (आघातजनक) भाषाओं से सम्बोधित करने पर वे व्यक्ति दुःखी या कुपित हो जाते हैं। अतः ऐसा विचार करके उस प्रकार के उन लोगों को उन्हें (जैसे हों वैसी) भाषा से सम्बोधित न करे।
५३४. साधु या साध्वी यद्यपि कितने ही रूपों को देखते हैं, तथापि वे उनके विषय में (संयमी भाषा में) इस प्रकार कहें। जैसे कि - ओजस्वी को ओजस्वी, तेजस् युक्त को तेजस्वी, वर्चस्वी-दीप्तिमान, उपादेयवचनी या लब्धियुक्त हो, उसे वर्चस्वी कहें। जिसकी यश:कीर्ति फैली हुई हो उसे यशस्वी, जो रूपवान् हो उसे अभिरूप, जो प्रतिरूप हो उसे प्रतिरूप, प्रासाद(प्रसन्नता) गुण से युक्त हो उसे प्रासादीय, जो दर्शनीय हो, उसे दर्शनीय कहकर सम्बोधित
१. 'बहुसंभूया वणफला पेहाए' के बदले पाठान्तर है- बहुसंभूयफला अंबा (अंब) पेहाए
अर्थात् जिसमें बहुत-से फल आए हैं, ऐसे आम के पेड़ों को देखकर। २. 'असंथडा' का वृत्तिकार 'असमर्थाः' संस्कृत रूपान्तर मानकर अर्थ करते हैं 'अतिभरेण न शक्नुवन्ति
फलानि धारयितुमित्यर्थः'। - अत्यन्त भार के कारण अब फल-धारण करने में समर्थ नहीं है, अर्थात्
फल टूट पड़ने वाले हैं। ३. वृत्तिकार दशवैकालिक की तरह आचारांग में भी इस सूत्र के अन्तर्गत सामान्य फलवान् वृक्ष न मानकर
आम्रवृक्षपरक मानते हैं। 'आम्रग्रहणं प्रधानोपलक्षणं' - प्रधानरूप से यहाँ आम्रग्रहण किया है, वह उपलक्षण से सभी वृक्षों का सूचक है।