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________________ १७४ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध अब मार्ग ठीक हो गए हैं, बीच-बीच में अब अण्डे यावत् मकड़ी के जाले आदि नहीं हैं, बहुतसे श्रमण-ब्राह्मण आदि भी उन मार्गों पर आने-जाने लगे हैं, या आने वाले भी हैं, तो यह जानकर साधु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार कर सकता है। विवेचन - वर्षाकाल में कहाँ, कैसे क्षेत्र में, कब तक रहे? - प्रस्तुत पाँच सूत्रों में साधु-साध्वी के लिए वर्षावास से सम्बन्धित ईर्या के नियम बताए हैं। इन नियमों का निर्देश करने के पीछे बहुत दीर्घ-दर्शिता, संयम-पालन, अहिंसा, एवं अपरिग्रह की साधना तथा साधु वर्ग के प्रति लोक श्रद्धा का दृष्टिकोण रहा है। एक ओर यह भी स्पष्ट बताया है कि वर्षाकाल के चार मास तक एक ही क्षेत्र में स्थिर क्यों रहे? जब कि दूसरी ओर वर्षावास समाप्ति के बाद कोई कारण न हो तो नियमानुसार वह विहार कर दे, ताकि वहाँ की जनता, क्षेत्र आदि से मोह-बंधन न हो, जनता की भी साधु वर्ग प्रति अश्रद्धा व अवज्ञा न बढ़े । वृद्धावस्था, अशक्ति, रुग्णता आदि कारण हों तो वह उस क्षेत्र में रह भी सकता है। ये कारण तो न हों, किन्तु वर्षा के कारण मार्ग अवरुद्ध हो गए. हों, कीचड़, हरियाली एवं जीवजन्तुओं से मार्ग भरे हों, तो ऐसी स्थिति में पांच दस, पन्द्रह दिन या अधिक से अधिक मार्गशीर्ष मास तक वहाँ रुक कर फिर विहार करने का विधान किया है। यदि वे मार्ग खुले हों, साधु लोग उन पर जाने-आने लगे हों, जीव-जन्तुओं से भरे न हों तो वह एक दिन का भी विलम्ब किये बिना वहाँ से विहार कर दे। पंच-दसरायकप्पे- इस पद के सम्बन्ध में आचार्यों में तीन मतभेद हैं (१) चूर्णिकार ने 'दसरायकप्पे' पाठ ही माना है और इसकी व्याख्या करते हुए वे कहते हैं-निर्गम (चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् विहार) तीन प्रकार का है-आर से, पुण्य से और पार से। दुर्भिक्ष महामारी आदि उपद्रवों के कारण, या आचार्यश्री विहार करने में असमर्थ हों, तो विहार का स्थगित हो जाना आर से निर्गम है। कोई भी विघ्न-बाधा न हो, मार्ग सुखपूर्वक चलने योग्य हो गए हों, तो कार्तिक पूर्णिमा के दूसरे दिन विहार हो जाना-पुण्य से निर्गम है और दस रात्रि व्यतीत होने पर यतनापूर्वक विहार कर देना- यह पार से निर्गम है। इस आलापक का भावार्थ यह है कि दस रात्रि व्यतीत हो जाने पर भी मार्ग अब भी बहुत-से जीव-जन्तुओं से अवरुद्ध है, श्रमणादि उस मार्ग पर अभी तक नहीं गए हैं, तो साधु विहार न करें अन्यथा विहार कर दें। (२) वृत्तिकार ने 'पंचदसरायकप्पे' पाठ मानकर व्याख्या की है कि हेमन्त के पांच या दस दिन व्यतीत होने पर विहार कर देना चाहिए। इसमें भी बीच में मार्ग अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त हों तो सारे मार्गशीर्ष तक वहीं रुक जाना चाहिए। १. णिग्गमो तिविहो - आरेण, पुण्णे, परेण....। चूर्णि मूलपाठ टिप्पण पृ० १७१ २. आचारांग वृत्ति ३७६ पत्रांक के आधार पर ... हेमन्तस्य पंचसु दशसु वा दिनेसु...'
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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