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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
जंभायमाणे वा उड्डोए वा वातणिसग्गे वा करेमाणे पुव्वामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपिहेत्ता ततो संजयामेव ऊससेज वा जाववायणिसग्गं वा करेजा।
४६०. [१] साधु या साध्वी शय्या-संस्तारकभूमि की प्रतिलेखना करना चाहे, वह आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर, गणावच्छेदक, बालक, वृद्ध, शैक्ष (नवदीक्षित), ग्लान एवं अतिथि साधु के द्वारा स्वीकृत भूमि को छोड़कर उपाश्रय के अन्दर, मध्य स्थान में या सम और विषम स्थान में, अथवा वातयुक्त और निर्वातस्थान में भूमि का बार-बार प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके तब (अपने लिए) अत्यन्त प्रासुक शय्या-संस्तारक को यतना पूर्वक बिछाए।
[२] साधु या साध्वी अत्यन्त प्रासुक शय्या-संस्तारक (पूर्वोक्त विधि से) बिछा कर उस अतिप्रासुक शय्या-संस्तारक पर चढ़ना चाहे तो उस अति प्रासुक शय्या-संस्तारक पर चढ़ने से पूर्व मस्तक सहित शरीर के ऊपरी भाग से लेकर पैरों तक भली-भाँति प्रमार्जन करके फिर यतनापूर्वक उस अतिप्रासुक शय्यासंस्तारक पर आरूढ हो। उस अतिप्रासुक शय्यासंस्तारक पर आरूढ होकर तब यतनापूर्वक उस पर शयन करे।।
[३] साधु या साध्वी उस अतिप्रासुक शय्यासंस्तारक पर शयन करते हए परस्पर एक दूसरे को, अपने हाथ से दूसरे के हाथ की, अपने पैरों से दूसरे के पैर की, और अपने शरीर से दूसरे के शरीर की आशातना नहीं करनी चाहिए। अपितु एक दूसरे की आशातना न करते हुए यतनापूर्वक अतिप्रासुक शय्या-संस्तारक पर सोना चाहिए।
४६१. वह साधु या साध्वी (शय्या-संस्तारक पर सोते-बैठते हुए) उच्छ्वास या निश्वास. लेते हुए, खांसते हुए, छींकते हुए, या उबासी लेते हुए, डकार लेते हुए, अथवा अपानवायु छोड़ते हुए पहले ही मुँह या गुदा को हाथ से अच्छी तरह ढांक कर यतना से उच्छ्वास आदि ले यावत् अपानवायु को छोड़े।
विवेचन- शय्या-संस्तारक-उपयोग के सम्बन्ध में विवेक- इन दो सूत्रों में शय्यासंस्तारक के उपयोग के सम्बन्ध में ५ विवेक सूत्र शास्त्रकार ने बताए हैं
(१) आचार्यादि ग्यारह विशिष्ट साधुओं के लिए शय्या-संस्तारक भूमि छोड़कर शेष भूमि में यतनापूर्वक बहु प्रासुक शय्या-संस्तारक बिछाए।
(२) शय्या-संस्तारक पर स्थित होते समय भी सिर से लेकर पैर तक प्रमार्जन करे। (३) यतनापूर्वक शय्या-संस्तारक पर सोए।
(४) शयन करते हुए अपने हाथ, पैर और शरीर, दूसरे के हाथ, पैर और शरीर से आपस में टकराएँ नहीं, इसका ध्यान रखे, और
१. 'आसयं पोसयं' पदों का अर्थ चर्णि में इस प्रकार है-आसतं मुहं पोसयं अहिद्वाणं-आसयं
मुख, पोसयं-गुदा। २. जाव शब्द यहाँ इसी सूत्र में पठित ऊससमाणे आदि पाठक्रम का सूचक है।