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[१६ ] सम्पादन की मौलिकताएँ:
आचारांग-द्वितीय के अब तक प्रकाशित अनुवाद-विवेचन में प्रस्तुत संस्करण अपनी कुछ मौलिक विशेषताएँ रखता है जिनका सहजभाव से सूचन करना आवश्यक समझता हूँ।
१. पाठ-शुद्धि का विशेष लक्ष्य।
२. ऐसे पाठान्तरों का उल्लेख, जिनका भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी महत्त्व है तथा कुछ भिन्न, नवीन न प्राचीन अर्थ का उद्घाटन भी होता है।
३. चूर्णिगत प्राचीन पाठों का मूल रूप में उल्लेख तथा सर्वसाधारण पाठक उसका अर्थ समझ सके, तदर्थ प्रथम बार हिन्दी भावार्थ के साथ टिप्पण में अंकित किया है।
४. पारिभाषिक तथा सांस्कृतिक शब्दों का-शब्दकोष की दृष्टि से अर्थ तथा अन्य आगमों के संदर्भो के साथ उनके अर्थ की संगति, विषय का विशदीकरण एवं चूर्णि-भाष्य आदि के आलोक में उनकी प्रासंगिक विवेचना।
५. बौद्ध एवं वैदिक परम्परा के ग्रन्थों के साथ अनेक समान आचारादि विषयों की तुलना।
६. इन सबके साथ ही भावानुसारी अनुवाद, सारग्राही विवेचन, विषय-विशदीकरण, शंका-समाधान आदि।
७. कठिन व दुर्बोध शब्दों का विशेष भावलक्ष्यी अर्थ है।
यथासंभव, यथाशक्य प्रयत्न रहा है कि पाठ व अनुवाद में अशुद्धि, अर्थ-विपर्यय न रहे, फिर भी प्रमादवश होना संभव है, अतः सम्पूर्ण शुद्ध व समग्रता का दावा करना तो उचित नहीं लगता, पर विज्ञ पाठकों से नम्र निवेदन अवश्य करूंगा कि वे मित्र बुद्धि से भूलों का संशोधन करें व मुझे भी सूचित करके अनुगृहीत करें।
आगमों का अनुवाद-संपादन प्रारम्भ करते समय मेरे मन में कुछ भिन्न कल्पना थी, किन्तु कार्य प्रारम्भ करने के बाद कुछ भिन्न ही अनुभव हुए। ऐसा लगता है कि आगम-सिर्फ धर्म व आचार ग्रन्थ ही नहीं हैं, किन्तु नीति, व्यवहार, संस्कृति, इतिहास और लोककला के अमूल्य रहस्य भी इनमें छुपे हुए हैं, जिनका ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में सर्वांगीण अध्ययन-अनुशीलन करने के लिए बहुत समय, विशाल अध्ययन और विस्तृत साधनों की अपेक्षा है।
पूज्यपाद श्रुत-विशारद युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी महाराज की बलवती प्रेरणा, वात्सल्य भरा उत्साहवर्धन, मार्गदर्शन तथा पंडितवर्य श्रीयुत शोभाचन्द्रजी भारिल्ल का निर्देशन, पिता तुल्य स्नेह, संशोधनपरिवर्धन की दृष्टि से बहुमूल्य परामर्श—इस संपादन के हर पृष्ठ पर अंकित है। इस अनुग्रह के प्रति आभार व्यक्त करना तो बहुत साधारण बात होगी। मैं हृदय से चाहता हूँ कि यह सौभाग्य भविष्य में भी इसी प्रकार प्राप्त होता रहे।
मुझे विश्वास है कि सुज्ञ पाठक मेरे इस प्रथम प्रयास का जिज्ञासाबुद्धि से मूल्यांकन करेंगे व आगम स्वाध्याय-अनुशीलन की परम्परा को पुनर्जीवित करने में अग्रणी बनेंगे। भाद्रपद
विनीत पर्युषण प्रथम दिन
–श्रीचन्द सुराना 'सरस' ७-९ -१९८०
[प्रथम संस्करण से] .