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________________ द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र ४३७-४४१ १४१ लोहकारशाला यावत् भूमिगृहों में चरकादि परिव्राजक शाक्यादि श्रमण इत्यादि पहले नहीं ठहरे हैं। (वे बनने के बाद से अब तक खाली पड़े रहे हैं), ऐसे मकानों में अगर निर्ग्रन्थ श्रमण आकर पहले-पहल ठहरते हैं, तो वह शय्या अनभिक्रान्तक्रिया से युक्त हो जाती है। अकल्पनीय है। ४३७. इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कई श्रद्धा भक्ति से युक्त जन हैं, जैसे कि गृहपति यावत् उसकी नौकरानियाँ। उन्हें पहले से ही यह ज्ञात होता है कि ये श्रमण भगवन्त शीलवान यावत् मैथुनसेवन से उपरत होते हैं, इन भगवन्तों से लिए आधाकर्मदोष से युक्त उपाश्रय में निवास करना कल्पनीय नहीं है। अतः हमने अपने प्रयोजन के लिए जो ये लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि मकान आदि बनवाए हैं, वे सब मकान हम इन श्रमणों को दे देंगे, और ह प्रयोजन के लिए बाद में दूसरे लोहकारशाला आदि मकान बना लेंगे। गृहस्थों का इस प्रकार का वार्तालाप सुनकर तथा समझकर भी जो निर्ग्रन्थ श्रमण गृहस्थों द्वारा (भेंट रूप में) प्रदत्त उक्त प्रकार के लोहकारशाला आदि मकानों में आकर ठहरते हैं, वहाँ ठहरकर वे अन्यान्य छोटे-बड़े उपहार रूप घरों का उपयोग करते हैं, तो आयुष्मान् शिष्य! उनकी वह शय्या (वसतिस्थान) वर्ण्यक्रिया से युक्त हो जाती है। - ४३८. इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कई श्रद्धालुजन होते हैं, जैसे कि गृहपति, उसकी पत्नी, पुत्री, पुत्र, पुत्रवधू, धायमाता, दास-दासियाँ आदि। वे उनके आचार-व्यवहार से तो अनभिज्ञ होते हैं, लेकिन वे श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से प्रेरित होकर बहुत से श्रमण, ब्राह्मण यावत् भिक्षाचरों को गिन-गिन कर उनके उद्देश्य से जहाँ-तहाँ लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि विशाल भवन बनवाते हैं। जो निर्ग्रन्थ साधु उस प्रकार के (गृहस्थ द्वारा श्रमणादि की गिनती करके बनवाये हुए) लोहकारशाला आदि भवनों में आकर रहते हैं, वहाँ रहकर वे अन्यान्य छोटे-बड़े उपहार रूप में प्रदत्त घरों का उपयोग करते हैं तो वह शय्या उनके लिए महावय॑क्रिया से युक्त हो जाती है। ४३९. इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कई श्रद्धालु व्यक्ति होते हैं, जैसे कि - गृहपति, उसकी पत्नी यावत् नौकरानियाँ आदि। वे उनके आचार-व्यवहार से तो अज्ञात होते हैं, लेकिन श्रमणों के प्रति श्रद्धा , प्रतीति और रुचि से युक्त होकर सब प्रकार के श्रमणों के उद्देश्य से लोहकारशाला यावत् भूमिगृह बनवाते हैं। सभी श्रमणों के उद्देश्य से निर्मित उस प्रकार के (लोहकारशाला) मकानों में जो निर्ग्रन्थ श्रमण आकर ठहरते हैं, तथा गृहस्थों द्वारा उपहार रूप में प्रदत्त अन्यान्य गृहों का उपयोग करते हैं, उनके लिए वह शय्या सावधक्रिया दोष से युक्त हो जाती है। ४४०. इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में गृहपति, उनकी पत्नी, पुत्री, पुत्रवधू आदि कई श्रद्धा-भक्ति से ओतप्रोत व्यक्ति हैं उन्होंने साधुओं के आचार-व्यवहार के सम्बन्ध में तो जानासुना नहीं है, किन्तु उनके प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से प्रेरित होकर उन्होंने किसी एक ही
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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