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________________ द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र ४२४-४२५ १२९ इसीलिए तीर्थंकरों ने पहले से साधु के लिए ऐसी प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और दिया है कि वह उस प्रकार के (गहस्थसंसक्त) उपाश्रय में न ठहरे, न कायोत्सर्गादि क्रिया करे। ४२४. गृहस्थों के साथ एक जगह निवास करना साधु के लिए कर्मबन्ध का कारण है। उसमें निम्नोक्त कारणों से राग-द्वेष के भावों का उत्पन्न होना सम्भव है-जैसे कि उस मकान में गृहस्थ के कुण्डल , करधनी, मणि, मुक्ता, चांदी, सोना या सोने के कड़े, बाजूबंद, तीनलड़ा-हार, फूलमाला, अठारह लड़ी का हार, नौ लड़ी का हार, एकावली हार, मुक्तावली हार, या कनकावली हार, रत्नावली हार, अथवा वस्त्राभूषण आदि से अलंकृत और विभूषित युवती या कुमारी कन्या को देखकर भिक्षु अपने मन में ऊँच-नीच संकल्प-विकल्प कर सकता है कि ये (पूर्वोक्त) आभूषण आदि मेरे घर में भी थे, एवं मेरी स्त्री या कन्या भी इसी प्रकार की थी, या ऐसी नहीं थी। वह इस प्रकार के उद्गार भी निकाल सकता है, अथवा मन ही मन उनका अनुमोदन भी कर सकता है। इसीलिए तीर्थंकरों ने पहले से ही साधुओं के लिए ऐसी प्रतिज्ञा का निर्देश दिया है, ऐसा हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि साधु ऐसे (गृहस्थ-संसक्त) उपाश्रय में न ठहरे, न कायोत्सर्गादि क्रियाएँ करे। '. ४२५. और फिर यह सबसे बड़े दोष का कारण है-गृहस्थों के साथ एक स्थान में निवास करने वाले साधु के लिए कि उसमें गृहपत्नियाँ, गृहस्थ की पुत्रियाँ, पुत्रवधुएँ, उसकी धायमाताएँ, दासियाँ या नौकरानियाँ भी रहेंगी। उनमें कभी परस्पर ऐसा वार्तालाप भी होना सम्भव है कि "ये जो श्रमण भगवान् होते हैं, वे शीलवान्, वयस्क, गुणवान, संयमी, शान्त, ब्रह्मचारी एवं मैथुन धर्म से सदा उपरत होते हैं। अत: मैथुन-सेवन इनके लिए कल्पनीय नहीं है। परन्तु जो स्त्री इनके साथ मैथुन-क्रीड़ा में प्रवृत्त होती है, उसे ओजस्वी, तेजस्वी, प्रभावशाली, रूपवान् और यशस्वी तथा संग्राम में शूरवीर, चमक-दमक वाले एवं दर्शनीय पुत्र की प्राप्ति होती है।" इस प्रकार की बातें सुनकर, मन में विचार करके उनमें से पुत्र-प्राप्ति की इच्छुक कोई स्त्री उस तपस्वी भिक्षु को मैथुन-सेवन के लिए अभिमुख कर ले, ऐसा सम्भव है। इसीलिए तीर्थंकारों ने साधुओं के लिए पहले से ही ऐसी प्रतिज्ञा बताई है, उनका हेतु, कारण या उपदेश ऐसा है कि साधु उस प्रकार के गृहस्थों से संसक्त उपाश्रय में न ठहरे, न कायोत्सर्गादि क्रिया करें। विवेचन-गृहस्थ-संसक्त स्थान में निवास के खतरे और सावधानी-सू० ४२० से ४२५ तक गृहस्थादि-संसक्त स्थान में साधु का निवास निषिद्ध बताकर उसमें निवास से उत्पन्न होने वाले भय स्थलों से सावधान किया गया है। सामान्यतः ब्रह्मचारी और संयमी साधुओं के लिए ब्रह्मयर्चरक्षा की दृष्टि से तीन प्रकार के निवास स्थान (उपाश्रय या मकान) वर्जित बताए गए
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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