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द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र ४१९ संस्कारित नहीं रहता, वह अन्यार्थकृत हो जाता है। साधु के लिए दशवैकालिक सूत्र में पर-कृत मकान में रहने का विधान है।
मूलगुण-दोष २ से दूषित मकान तो पुरुषान्तरकृत होने पर भी कल्पनीय नहीं, इसलिए अन्य विशेषण प्रयुक्त किए गए हैं- "नीहडे अत्तट्ठिए परिभुत्ते आसेविते।" उपाश्रय-एषणा [ चतुर्थ विवेक]
४१९. से भिक्खु वा २ से जं पुण उवस्सयं जाणेजा, तंजहा खंधंसि २ वा मंचंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंसि वा अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि णण्णस्थ आगाढागाढेहिं कारणेहिं ठाणं वा ४३ चेतेजा।
से य आहच्च चेतिते सिया, णो तत्थ सीतोदगवियडेण ५ वा उसिणोदगवियडेण वा हत्थाणि वा पादाणि वा अच्छीणि वा दंताणि वा मुहं वा उच्छोलेज वा पधोएज वा णो तत्थ ऊसटुं ६ पकरेजा, तंजहा उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा वंतं वा पित्तं वा पूतिं वा सोणियं वा अण्णतरं वा सरीरावयवं। . केवली बूया-आयाणमेतं। से तत्थ ऊसटुं पकरेमाणे पयलेज वा पवडेज वा, से तत्थपयलमाणे पवडमाणे वा हत्थं वा जाव सीसं वा अण्णतरं वा कायंसि इंदियजातं लूसेजा, १. (क) आचारांग मूल, वृत्ति पत्र ३६१ (ख) अनटुं पगडं लयणं, भएज सयणासणं।
उच्चारभूमिसंपन्नं इत्थी-पसु-विवज्जियं॥ -दशवै० अ० ८ गा० ५१ २. आचारांग वृत्ति पत्रांक ३६१ में मूलगुण-दोष ये बताए गए हैं
'पट्ठी वंसो वो धारणा उ चत्तारि मूलवेलीओ।'-देखें सूत्र ४४३ का विवेचन ३. खंधंसि आदि पदों का अर्थ निशीथ चूर्णि उ० ४ में इस प्रकार है-'खंधो पागारो, पेढं वा , फलिहो
अग्गला, अकुड्डो मंचो, सो य मंडवो। गिहोवरि मालो दुभूमिगादि। विजूहगवक्खोवसोभिओ पासा दो। सव्वो परिडायालं हम्मतलं।'-स्कन्ध-प्राकार या एक खम्भे पर टिकाया हुआ उपाश्रय, फलिहोअर्गला, मंचो-बिना दीवार का स्थान, वही मंडप होता है। मालो-घर के ऊपर जो दूसरी आदि मंजिल
हो, पासादो-अनेक कमरों से सुशोभित महल। हम्मतलं-सबसे ऊपर की अटारी। ४. 'ठाणं वा' के बाद '३' का अंक 'सेज वा निसीहियं वा' पाठ का सूचक है।
'सीतोदगवियडेण' आदि पदों का अर्थ देखिए निशीथ चूर्णि उ० ४ में-'सीतोदगं अतावित्तं वियडं ति व्यपगतजीवं । उसिणंति तावियं तं चेव ववगयजीवं। एकसि उच्छोलणं, पुणो पुणो धोवणं पधोवणं।' सीतोदर्ग-गर्म नहीं किया हुआ, वियर्ड-जीवरहित-प्रासुक जल। उसिणं-गर्म किया हुआ, वह भी जीव रहित
जल होता है। उच्छोलणं-एक बार धोना, पधोवणं-बार-बार धोना। ६. ऊस का अर्थ चूर्णिकार के शब्दों में 'उच्छिते उस्सटुं उच्चारादि।' ऊपर से उच्चारादि का उत्सर्जन-त्याग
करना उत्सृष्ट है। इसके अनेक पाठान्तर हैं-ओसड़े, ऊसडे, ऊसढं आदि।