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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
को स्वीकार करके विचरण करते हैं, जो मैं भी इस प्रतिमा को स्वीकार करके विचरण करता हूँ, ये सभी जिनाज्ञा में उद्यत हैं और इस प्रकार परस्पर एक-दूसरे की समाधि - पूर्वक विचरण करते हैं। विवेचन—सात पिण्डैषणाएँ और सात पानैषणाएं : विहगावलोकनसूत्र ४०९ और ४१० में इस अध्ययन में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक विविध पहलुओं से पिण्डैषणा और पानैषणा के सम्बन्ध में यत्र-तत्र उल्लेख किया गया है, उसके सारांश रूप में फलश्रुति सहित विहगावलोकन प्रस्तुत किया गया है। संक्षेप में सात पिण्डैषणाओं के नाम इस प्रकार हैं (१) असंसृष्टा (२) संसृष्टा (३) उद्धृता, (४) अल्पलेपा, (५) उपस्थिता या उद्गृहीता, (६) प्रगृहीता और (७) उज्झतधर्मिका । इसी प्रकार संक्षेप में सात पानैषणाएँ हैं. (१) अंससृष्टा, (२) संसृष्टा (३) उद्धृता, (४) अल्पलेपा या नानात्वसंज्ञा (५) उद्गृहीता, (६) प्रगृहीता और (७) उज्झितधर्मिका । इन सबमें प्रतिपादित विषय की झांकी बताने के लिए शास्त्रकार ने एक-एक सूत्र का संक्षिप्त निरूपण कर दिया है। इसी प्रकार पानैषणा के सम्बन्ध में संक्षिप्त वर्णन किया गया है।
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कुल मिलाकर संक्षेप में सुन्दर निष्कर्ष दे दिया गया है, ताकि मन्दबुद्धि एवं विस्मरणशील साधु-साध्वी भी पुन: पुन: अपने गुरुजनादि से न पूछकर सूत्ररूप में इन एषणाओं को हृदयंगम कर लें ।
इन दोनों प्रकार की एषणाओं में गवेषणैषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगैषणा या ग्रासैषणा का समावेश हो जाता है । १
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अधिकारी - वृत्तिकार के अनुसार इन पिण्डैषणा - पानैषणाओं के अधिकारी दोनों प्रकार के साधु हैं गच्छान्तर्गत ( स्थविरकल्पी) और गच्छविनिर्गत (जिनकल्पी) । गच्छान्तर्गत स्थविरकल्पी साधु-साध्वियों के लिए सातों ही पिण्डैषणाओं और पानैषणाओं का पालन करने की भगवदाज्ञा है, किन्तु गच्छनिर्गत (जिनकल्पी) साधुओं के लिए प्रारम्भ की दो पिण्डैषणाओंपानैषणाओं का ग्रहण करने की आज्ञा नहीं है, शेष पाँचों पिण्ड- पानैषणाओं का अभिग्रहपूर्वक ग्रहण करने की अनुज्ञा है । दृष्टिकोण- • अध्ययन की परिसमाप्ति पर शास्त्रकार ने इन पिण्ड - पानैषणाओं के पालनकर्त्ता को अपना दृष्टिकोण तथा व्यवहार उदार एवं नम्र रखने के लिए दो बातों की ओर ध्यान खींचा है (१) अहंकारवश दूसरों को हीन मत मानो, न उन्हें हेयदृष्टि से देखो, (२) स्वयं को भी हीन मत मानो, न हीनता की वृत्ति को मन में स्थान दो । वृत्तिकार इसका तात्पर्य बताते हुए कहते हैं
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इन सात पिण्ड - पानैषणाओं में से किसी एक प्रतिमा को ग्रहण करनेवाला साधु ऐसा न कहे कि 'मैंने ही पिण्डैषणादि का शुद्ध अभिग्रह धारण किया है, अन्य प्रतिमाओं को ग्रहण करने १. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ३५७ के आधार पर
- मूलपाठ टिप्पण पृ० १४२
(ख) आचारांग चूर्णि २. आचारांग वृत्ति पत्रांक ३५७