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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
इक्कारसमो उद्देसओ
एकादश उद्देशक माया-परिभोगैषणा-विचार
४०७. भिक्खागा णामेगे एवमाहंसु समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं वा दूइज्जमाणे मणुण्णं भोयणजातं लभित्ता-से य भिक्खु गिलाइ, से हंदह णं तस्साहरह, से य भिक्खू णो भुंजेज्जा तुमं चेव णं भुंजेज्जासि। से 'एगतितो भोक्खामि' त्ति कट्ट पलिउंचिय २ आलोएज्जा, तंजहा - इमे पिंडे, इमे लोए, इमे तित्तए, इमे कडुयए, इमे कसाए, इमे अंबिले, इमे महुरे, णो खलु एत्तो किंचि गिलाणस्स सदति त्ति। माइट्ठाणं संफासे। णो एवं करेजा। तहाठितं आलोएजा जहाठितं गिलाणस्स सदति त्ति, तं [ जहा-तित्तयं तित्तए ति वा, कडुयं २, कसायं २, अंबिलं २, महुरं २।२
४०८. भिक्खागा णामेगे एवमाहंसु समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं दूइजमाणे [वा] मणुण्णं भोयणजातं लभित्ता - से य भिक्खू गिलाइ, से हंदह णं तस्साहरह, से य भिक्खू णो भुंजेजा आहरेज्जासि णं। णो खलु मे अंतराए आहरिस्सामि।* इच्चेयाई आयतणाई उवातिकम्म।*
४०७. एक क्षेत्र में (वृद्धावस्था, रुग्णता आदि कारणवश पहले से) स्थिरवासी सम-समाचारी वाले साधु अथवा ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले (आगन्तुक) साधु भिक्षा में मनोज्ञ भोजन प्राप्त . होने पर कहते हैं - जो भिक्ष ग्लान (रुग्ण) है. उसके लिए तम यह मनोज्ञ आहार ले लो
और उसे ले जाकर दे दो। अगर वह रोगी भिक्ष न खाए तो तम खा लेना। उस भिक्ष ने उ (रोगी के लिए) वह आहार लेकर सोचा - 'यह मनोज आहार मैं अकेला ही खाऊँगा।' यों विचार कर उस मनोज्ञ आहार को अच्छी तरह छिपाकर रोगी भिक्ष को दूसरा आहार दिखलाते हुए कहता है -भिक्षुओं ने आपके लिए यह आहार दिया है। किन्तु यह आहार आपके लिए पथ्य नहीं है, यह रूक्ष है, यह तीखा है, यह कड़वा है, यह कसैला है, यह खट्टा है, यह अधिक मीठा है, अतः रोग बढ़ाने वाला है। इससे आप (ग्लान) को कुछ भी लाभ नहीं होगा।' इस प्रकार कपटाचरण करने वाला भिक्षु मातृस्थान का स्पर्श करता है। भिक्षु को ऐसा कभी नहीं करना चाहिए। किन्तु जैसा भी आहार हो, उसे वैसा ही दिखलाए – अर्थात् तिक्त को तिक्त १. तहाठितं . सदति का पाठान्तर है - तहेव तं आलोएज्जा जहेव तं गिलाणस्स सदति - इसका
भावार्थ चूर्णिकार ने इस प्रकार दिया है- जहत्थियं आलोएइ जहा गिलाणस्स सदति। अर्थात् यथार्थ
रूप में ग्लान के समक्ष प्रकट करे, जिससे ग्लान का उपकार हो। २. यहाँ '२' का अंक 'तित्तयं' की भाँति सर्वत्र पुनरावृत्ति का सूचक है।
यह पाठ मुनि जम्बूविजयजी की प्रति में नहीं है, किन्तु चूर्णि एवं टीका के अनुसार होना चाहिए।