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________________ प्रथम अध्ययन : दशम उद्देशक : सूत्र ४०२-४०४ १०१ दलएजा। तहप्पगारं पडिग्गहगं परहत्थंसि वा परपायंसि वा अफासुयं अणेसणिजं लाभे संते जाव णो पडिगाहेज्जा। से य आहच्च पडिगाहिते सिया, तंणो हि त्ति वएज्जा, णो धित्ति वएज्जा, णो अणह त्ति वएजा।से त्तमादाय एगंतमवक्कमेजा, २[त्ता] अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अप्पंडे २ जाव संताणए मंसगं मच्छगं भोच्चा अट्ठियाई कंटए गहाए से त्तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा, २[त्ता] अहे झामथंडिल्लंसि वारे जाव पमज्जिय पमज्जिय परिट्ठवेजा। ४०२. गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि वहाँ ईक्ष के पर्व का मध्य भाग है, पर्व-सहित इक्षुखण्ड (गंडेरी) है, पेरे हुए ईख के छिलके हैं, छिला हुआ अग्रभाग है, ईख की बड़ी शाखाएँ हैं, छोटी डालियाँ हैं, मूंग आदि की तोड़ी हुई फली तथा चौले की फलियाँ पकी हुई हैं, (किसी निमित्त से अचित्त हैं), परन्तु इनके ग्रहण करने पर इनमें खाने योग्य भाग बहुत थोड़ा और फेंकने योग्य भाग बहुत अधिक है, (ऐसी स्थिति में) इस प्रकार के अधिक फेंकने योग्य आहार को अकल्पनीय और अनेषणीय मानकर मिलने पर भी न ले। ___४०३. गृहस्थ के यहाँ आहार के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि इस गूदेदार पके फल (मांस) में बहुत गुठलियाँ (अस्थि) हैं, या इस अनन्नास (मच्छ) में बहुत कांटे हैं, इसे ग्रहण करने पर इस आहार में खाने योग्य भाग अल्प है, फेंकने योग्य भाग अधिक है, तो इस प्रकार के बहुत गुठलियों तथा बहुत कांटों वाले गूदेदार फल के प्राप्त होने पर उसे अकल्पनीय समझ कर न ले। ४०४. भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के यहाँ आहार के लिए प्रवेश करे, तब यदि वह बहुत-सी गुठलियों एवं बीज वाले फलों के लिए आमंत्रण करे -"आयुष्मन् श्रमण! क्या आप बहुत-सी गुठलियों एवं बीज वाले फल लेना चाहते हैं?" इस प्रकार का वचन सुनकर और उस पर विचार करके पहले ही साधु उससे कहे- आयुष्मन् गृहस्थ (भाई) या बहन! बहुत-से बीज-गुठली से युक्त फल लेना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है। यदि तुम मुझे देना चाहते/चाहती हो तो इस फल का जितना गूदा (गिर—सार भाग) है, उतना मुझे दे दो, बीज-गुठलियाँ नहीं। १. तं णो हि त्ति वएज्जा, णो धि त्ति वएज्जा, णो अणह त्ति वएज्जा— के स्थान पर पाठान्तर है- णो हि त्ति वएज्जा,णो वि त्ति वएज्जा,णो हंदह त्ति वएज्जा, ..णो अणह त्ति वएज्जा। इन सबका भावार्थ, चूर्णिकार ने यों दिया है-'बहुअट्ठिते दिण्णे हि त्ति हिति हस्सि विति य णं वा फरुसंण भणेज्जा'गृहस्थ द्वारा बहुत गुठलियों वाला आहार देने पर हिहि करके उसकी हँसी न उड़ाए, और न ही कठोर वचन बोले। २. यहाँ जाव शब्द से अप्पंडे से लेकर संताणए तक का पाठ सू० ३२४ के अनुसार समझें। ३. यहाँ झामथंडिल्लंसि वा के बाद जाव शब्द सू० ३२४ के अनुसार पमजिय तक के पाठ का सूचक है।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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