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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
गृहस्थ के इस प्रकार कहने पर साधु उस पानी को स्वयं ले ले अथवा गृहस्थ स्वयं देता हो तो उसे प्रासुक और एषणीय जान कर प्राप्त होने पर ग्रहण कर ले।
३७१. गृहस्थ के यहाँ पानी के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि इस प्रकार का पानी जाने कि गृहस्थ ने प्रासुक जल को व्यवधान रहित (सीधा) सचित्त पृथ्वी पर, सस्निग्ध पृथ्वी पर, सचित्त शिला पर, सचित्त मिट्टी के ढेले या पाषाण पर, घुन लगे हुए लक्कड़ पर, दीमक लगे जीवाधिष्ठित पदार्थ पर, अण्डे, प्राणी, बीज, हरी वनस्पति, ओस, सचित्त जल, चींटी आदि के बिल, पाँच वर्ण की काई, कीचड़ के सनी मिट्टी, मकड़ी के जालों से युक्त पदार्थ पर रखा है, अथवा सचित्त पदार्थ से युक्त बर्तन से निकालकर रखा है। असंयत गृहस्थ भिक्षु को देने के उद्देश्य से सचित्त जल टपकते हुए अथवा जरा-से गीले हाथों से, सचित्त पृथ्वी आदि से युक्त बर्तन से, या प्रासुक जल के साथ सचित्त (शीतल) उदक मिलाकर लाकर दे तो उस प्रकार के पानक (जल) को अप्रासुक और अनेषणीय मानकर साधु उसे मिलने पर भी ग्रहण न करे।
विवेचन -अग्राह्य और ग्राह्य जल-साधु के लिए भोजन की तरह पानी भी अचिंत्त ही ग्राह्य है, सचित्त नहीं। गर्म पानी (तीन उबाल आने पर) अचित्त हो जाता है, परन्तु ठण्डा पानी भी चावल, तिल, तुष, जौ, द्राक्ष आदि धोने, काँजी, आटे, छाछ आदि के बर्तन धोने से वर्ण-गन्ध-रसस्पर्श बदल जाने पर अचित्त और प्रासुक हो जाता है। वह पानी, जिसे शास्त्रीय भाषा में 'पानक' कहा गया है, भिक्षाविधि के अनुसार साधु ग्रहण कर सकता है, बशर्ते कि वह पानी ताजा धोया हुआ न हो, उसका स्वाद बदल गया हो, गन्ध भी बदल गया हो, रंग भी परिवर्तित हो गया हो, और . विरोधी शस्त्र द्वारा निर्जीव हो गया हो, इसी प्रकार उस प्रासुक जल का बर्तन किसी सचित्त जल, पृथ्वी, वनस्पति, अग्नि आदि के या त्रसकाय के नीचे, ऊपर या स्पर्श करता हुआ न हो, पंखे, हाथ आदि से हवा करके न दिया जाता हो, उसमें पृथ्वीकायादि या द्वीन्द्रियादि त्रसजीव न पड़े हों, उसमें सचित्त पानी मिलाकर न दिया जाता हो। निष्कर्ष यह है कि पूर्वोक्त प्रकार का प्रासुक अचित्त जल सचित्त वस्तु से बिल्कुल अलग रखा हो तो साधु के लिए ग्राह्य है, अन्यथा नहीं।
दशवैकालिक आदि आगमों में इसका विस्तृत निरूपण है।
'पाणगजायं' आदि पदों के अर्थ-पाणगजायं-पानक (पेयजल) के प्रकार, उस्सेइमंआटा ओसनते समय जिस पानी में हाथ धोए जाते हैं, डुबोये जाते हैं, वह पानी उत्स्वेदिम १. (क) टीका पत्र ३४६ के आधार पर (ख) दशवै० जिनदास चूर्णि पृ० १८५
तहेवुच्चावयं पाणं, अदुवा वारधोयणं। संसेइमं चाउलोदगं, अहुणाधोयं विवजए॥७५॥ जं जाणेज चिराधोयं, मइए दंसणेण वा। पडिपुच्छिऊण सोच्चा वा,जं च विस्संकियं भवे ॥ ७६॥ -दसवै०५/१