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________________ (प्रकाशकीय) भगवान् श्रीमहावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी के पावन प्रसंग पर साहित्य-प्रकाशन की एक नयी उत्साहपूर्ण लहर उठी थी। उस समय जैनधर्म, जैनदर्शन और भगवान् महावीर के लोकोत्तर जीवन एवं उनकी कल्याणकारी शिक्षाओं से सम्बन्धित विपुल साहित्य का सृजन हुआ। मुनि श्रीहजारीमल स्मृति प्रकाशन, ब्यावर की ओर से नामक ग्रन्थ का प्रकाशन किया गया। इसी प्रसंग पर विद्वद्रत्न श्रद्धेय मुनि श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' के मन में एक उदात्त भावना जागृत हुई कि भगवान् महावीर से सम्बन्धित साहित्य का प्रकाशन हो रहा है, यह तो ठीक है, किन्तु उनकी मूल एवं पवित्र वाणी जिन आगमों में सुरक्षित है, उन आगमों को सर्वसाधारण को क्यों न सुलभ कराया जाय, जो सम्पूर्ण बत्तीसी के रूप में आज कहीं उपलब्ध नहीं है। भगवान् महावीर की असली महिमा तो उस परम पावन, सुधामयी वाणी में ही निहित है। मुनिश्री की यह भावना वैसे तो चिरसंचित थी, परन्तु उस वातावरण ने उसे अधिक प्रबल बना दिया। मुनिश्री ने कुछ वरिष्ठ आगमप्रेमी श्रावकों तथा विद्वानों के समक्ष अपनी भावना प्रस्तुत की। धीरे-धीरे आगम बत्तीसी के सम्पादन-प्रकाशन की चर्चा बल पकड़ती गई। भला कौन ऐसा विवेकशील व्यक्ति होगा, जो इस पवित्रतम कार्य की सराहना और अनुमोदना न करता? श्रमण भगवान् महावीर के साथ आज हमारा जो सम्पर्क है वह उनकी जगत्-पावन वाणी के ही माध्यम से है। महावीर की देशना के सम्बन्ध में कहा गया है - 'सव्वजगजीवरक्खणदयट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं।' अर्थात् जगत् के समस्त प्राणियों की रक्षा और दया के लिए ही भगवान् की धर्मदेशना प्रस्फुटित हुई थी। अतएव भगवतवाणी का प्रचार और प्रसार करना प्राणीमात्र की रक्षा एवं दया का ही कार्य है। इससे अधिक श्रेष्ठ विश्वकल्याण का अन्य कोई कार्य नहीं हो सकता। - इस प्रकार आगम प्रकाशन के विचार को सभी ओर से पर्याप्त समर्थन मिला। तब मुनिश्री के वि.स. २०३५ के ब्यावर चातुर्मास में समाज के अग्रगण्य श्रावकों की एक बैठक आयोजित की गई और प्रकाशन की रूपरेखा पर विचार किया गया। चिन्तन-मनन के पश्चात् वैशाख शुक्ला १० को, जो भगवान् महावीर के केवलज्ञान-कल्याणक का शुभ दिन था, आगम बत्तीसी के प्रकाशन की घोषणा की गई और शीघ्र ही कार्य आरम्भ कर दिया गया। . हमें प्रसन्नता है कि श्रद्धेय मुनिश्री की भावना और आगम प्रकाशन समिति के निश्चयानुसार हमारे मुख्य सहयोगी श्रीयुत् श्रीचन्दजी सुराणा 'सरस' ने प्रबन्ध सम्पादन का दायित्व स्वीकार किया और आचारांग के सम्पादन का कार्य प्रारम्भ किया। साथ ही अन्य विद्वानों ने भी विभिन्न आगमों के सम्पादन का दायित्व स्वीकार किया और कार्य चालू हो गया। तब तक प्रसिद्ध विद्वान एवं आगमों के गंभीर अध्येता पंडित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल भी बम्बई से ब्यावर आ गये और उनका मार्गदर्शन एवं सहयोग भी हमें प्राप्त हो गया। आपके बहुमूल्य सहयोग से हमारा कार्य अति सुगम हो गया और भार हल्का हो गया। हमें अत्यधिक प्रसन्नता और सात्त्विक गौरव का अनुभव हो रहा है कि एक ही वर्ष के अल्प समय में हम अपनी इस ऐतिहासिक अष्टवर्षीय योजना को मूर्त रूप देने में सफल हो सके। ____ कुछ सज्जनों का सुझाव था कि सर्वप्रथम दशवैकालिक, नन्दीसूत्र आदि का प्रकाशन किया जाय किन्तु श्रद्धेय मुनिश्री मधुकरजी महाराज का विचार प्रथम अंग आचारांग से ही प्रारम्भ करने का था, क्योंकि आचारांग समस्त अंगों का सार है। [७]
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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