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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
यह मनुष्य भी चेतना युक्त है,
यह वनस्पति भी चेतना युक्त है। यह मनुष्य शरीर छिन्न होने पर म्लान यह वनस्पति भी छिन्न होने पर म्लान हो जाता है,
होती है। यह मनुष्य भी आहार करता है,
यह वनस्पति भी आहार करती है। यह मनुष्य शरीर भी अनित्य है,
यह वनस्पति का शरीर भी अनित्य है। यह मनुष्य शरीर भी अशाश्वत है,
यह वनस्पति शरीर भी अशाश्वत है। यह मनुष्य शरीर भी आहार से उपेचित होता है, आहार के अभाव में अपचित/क्षीण/दुर्बल होता है, यह वनस्पति का शरीर भी इसी प्रकार उपचित-अपचित होता है।
यह मनुष्य शरीर भी अनेक प्रकार की अवस्थाओं को प्राप्त होता है। - यह वनस्पति शरीर भी अनेक प्रकार की अवस्थाओं को प्राप्त होता है।
विवेचन - भारत के प्रायः सभी दार्शनिकों ने वनस्पति को सचेतन माना है। किन्तु वनस्पति में ज्ञान-चेतना अल्प होने के कारण उसके सम्बन्ध में दार्शनिकों ने कोई विशेष चिन्तन-मनन नहीं किया। जैनदर्शन में वनस्पति के सम्बन्ध में बहुत ही सूक्ष्म व व्यापक चिन्तन किया गया है। मानव-शरीर के साथ जो इसकी तुलना की गई है, वह आज के वैज्ञानिकों के लिए भी आश्चर्यजनक व उपयोगी तथ्य है। जब सर जगदीशचन्द्र बोस ने वनस्पति में मानव के समान ही चेतना की वैज्ञानिक प्रयोगों के द्वारा सिद्धि कर बताई थी, तब से जैनदर्शन का वनस्पति-सिद्धान्त एक वैज्ञानिक सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठित हो गया है। ।
वनस्पति विज्ञान (Botany) आज जीव-विज्ञान का प्रमुख अंग बन गया है। सभी जीवों को जीवन-निर्वाह करने, वृद्धि करने, जीवित रहने और प्रजनन (संतानोत्पत्ति) के लिए भोजन किंवा ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। यह ऊर्जा सूर्य से फोटोन (Photon) तरंगों के रूप में पृथ्वी पर आती है। इसे ग्रहण करने की क्षमता सिर्फ पेड़-पौधों में ही है। पृथ्वी के सभी प्राणी पौधों से ही ऊर्जा (जीवनी शक्ति) प्राप्त करते हैं। अतः पेड़-पौधों (वनस्पति) का मानव जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । वैज्ञानिक व चिकित्सा-वैज्ञानिक मानव-शरीर के विभिन्न अवयवों का, रोगों का, तथा आनुवंशिक गुणों का अध्ययन करने के लिए आज 'वनस्पति' (पेड़-पौधों) का, अध्ययन करते हैं। अतः वनस्पति-विज्ञान के क्षेत्र में आगमसम्मत वनस्पतिकायिक जीवों की मानव शरीर के साथ तुलना बहुत अधिक महत्त्व रखती है।
४६. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाता भवंति । एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्छेते आरंभा परिण्णाया भवंति ।
४७. तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं वणस्सतिसत्थं समारंभेजा, णेवण्णेहिं वणस्सतिसत्थं समारंभावेजा, णेवऽण्णे वणस्सतिसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा । ४८. जस्सेते वणस्सतिसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि ।
॥पंचमो उद्देसओ समत्तो ॥ .