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आचाराङ्ग सूत्र
शस्त्रपरिज्ञा-प्रथम अध्ययन
आचारांग सूत्र
प्राथमिक
के प्रथम अध्ययन का नाम 'शस्त्रपरिज्ञा' है ।
शस्त्र का अर्थ है - हिंसा के उपकरण या साधन । जो जिसके लिए विनाशक या मारक होता है, वह उसके लिए शस्त्र है। चाकू, तलवार आदि हिंसा के बाह्य साधन, द्रव्यशस्त्र हैं। राग-द्वेषयुक्त कलुषित परिणाम भाव - शस्त्र हैं।
परिज्ञा का अर्थ है - ज्ञान अथवा चेतना । इस शब्द से दो अर्थ ध्वनित होते हैं - 'ज्ञ - परिज्ञा द्वारा वस्तुतत्त्व का यथार्थ परिज्ञान तथा 'प्रत्याख्यानपरिज्ञा' द्वारा हिंसादि के हेतुओं का
त्याग ।
शस्त्र - परिज्ञा का सरल अर्थ है - हिंसा के स्वरूप और साधनों का ज्ञान प्राप्त करके उनका
त्याग करना ।
हिंसा की निवृत्ति अहिंसा है। अहिंसा का मुख्य आधार है - आत्मा । आत्मा का ज्ञान होने पर ही अहिंसा में आस्था दृढ़ होती है, तथा अहिंसा का सम्यक् परिपालन किया जा सकता है।
प्रथम उद्देशक के प्रथम सूत्र में सर्वप्रथम 'आत्म-संज्ञा' - आत्मबोध की चर्चा करते हुए बताया है कि कुछ मनुष्यों को आत्म-बोध स्वयं हो जाता है, कुछ को उपदेश - श्रवण व शास्त्र - अध्ययन आदि से होता है। आत्म- बोध होने पर आत्मा के अस्तित्व में विश्वास होता है, तब वह आत्मवादी बनता है। आत्मवादी ही अहिंसा का सम्यक् परिपालन कर सकता है। इस प्रकार आत्म-अस्तित्व की चर्चा के बाद हिंसा-अहिंसा की चर्चा की गई है। हिंसा के हेतु निमित्त कारणों की चर्चा, षट्काय के जीवों का स्वरूप, उनकी सचेतनता की सिद्धि, हिंसा से होने वाला आत्म-परिताप, कर्मबन्ध, तथा उससे विरत होने का उपदेश - आदि विषयों का सजीव शब्दचित्र प्रथम अध्ययन के सात उद्देशकों एवं बासठ सूत्रों में प्रस्तुत किया गया है।
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१. जं जस्स विणासकारणं त तस्स सत्थं भण्णति - नि. चू. उ. १, अभिधानराजेन्द्र भाग ७ पृष्ठ ३३१ 'सत्थं' शब्द ।
२. आचारांग निर्युक्ति - गाथा २५ ।