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किसी भी प्रकार में निवास स्थान का निर्माण करना निषिद्ध माना गया था । यदि निर्माण भी उसके निमित्त किया गया हो तो उसमें श्रमण अवस्थित नहीं हो सकता था। बौद्ध भिक्षुओं के लिए वस्त्र-ग्रहण करना अनिवार्य था । श्रमणों के निमित्त क्रय करके जो गृहस्थ वस्त्र देता था उसे तथागत बुद्ध सहर्ष स्वीकार करते थे । बुद्ध ने श्रमणों के निमित्त से दिये गये वस्त्रों को ग्रहण करना उचित माना था। पर जैन श्रमणों के लिए वस्त्र-ग्रहण करना उत्सर्ग मार्ग नहीं था और उसके निमित्त निर्मित-क्रीत वस्त्र को वह ग्रहण भी नहीं कर सकता था और न वह बहुमूल्य, उत्कृष्ट वस्त्रों को ग्रहण करता था। उसके पास वस्त्र होने पर ग्रीष्मऋतु आदि में वस्त्र धारण करना आवश्यक न होता तो वह उसे धारण नहीं करता और आवश्यक होने पर लज्जा-निवारणार्थ अनासक्त-भाव से वस्त्र का उपयोग करता था । श्रमण भिक्षा से अपना जीवनयापन करता था। भोजन के निमित्त होने वाली सभी प्रकार की हिंसा से वह मुक्त था। भगवान् महावीर के युग में स्थूल जीवों की हिंसा से जन-मानस परिचित था । पर त्यागी · और संन्यासी कहलाने वाले व्यक्तियों को भी सूक्ष्म-हिंसा का परिज्ञान नहीं था । वे नित्य नयी मिट्टी खोदकर लाते और आश्रम का लेपन करते थे । अनेकों बार स्नान करने में धर्म का अनुभव करते । तथागत बुद्ध भी पानी में जीव नहीं मानते थे। वैदिक परम्परा में "चउसठ्ठीए मट्टियाहि स ण्हाति" वह चौसठ बार मिट्टी का स्नान करता है। पंचाग्नि तप तापने में साधना की उत्कृष्टता मानी जाती, विविध प्रकार से वायुकाय के जीवों की विराधना की जाती और कन्द-मूल-फल-फूल के आहार को निर्दोष आहार माना जाता। वैदिक परम्परा के ऋषिगण गृह का परित्याग कर पत्नी के साथ जंगल में रहते थे। वे गृह-त्याग तो करते थे पर पत्नी- त्याग नहीं ।
भगवान् महावीर ने स्पष्ट कहा कि श्रमण को स्त्री-संग का पूर्ण त्याग करना चाहिए। क्योंकि स्त्री-संग से नाना प्रकार के प्रपंच करने पड़ते हैं, जिसमें केवल बन्धन ही बन्धन है। अतः सन्तों को गृह त्याग ही नहीं सर्व परित्यागी होना चाहिए। अहिंसा महाव्रत के पूर्ण रूप से पालन करने से अन्य सभी महाव्रतों का पालन सहज संभव था । श्रमण किसी भी प्रकार की हिंसा न स्वयं करे और न दूसरों को करने के लिए प्रेरित करे और न हिंसा करने वालों का अनुमोदन ही करे - मन, वचन और काया से। अहिंसा महाव्रत की सुरक्षा के लिए रात्रि भोजन का त्याग अनिवार्य है। श्रमण को भिक्षा में जो भी वस्तु उपलब्ध होती है वह उसे समभावपूर्वक ग्रहण करता था । परीषहों को ग्रहण करते समय उसके मन में किंचिन्मात्र भी असमाधि नही होती थी। उसके मन में आनन्द की ऊर्मियाँ तरंगित होती रहती थीं। शारीरिक कष्ट का असर मन पर नहीं होता । क्योंकि ध्यानाग्नि से वह कषायों को जला देता था। भगवान् महावीर का मुख्य लक्ष्य शरीर शुद्धि नहीं आत्म शुद्धि हैं । जिसके जीवन में अहिंसा की निर्मल धारा प्रवाहित हो रही है उसे ही आर्य कहा गया है और जिसके जीवन में हिंसा की प्रधानता है वह अनार्य है।
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आचारांगसूत्र में ऐसे अनेक शब्द व्यवहृत हुए हैं जिनमें विराट् चिन्तन छिपा हुआ है। आचारांग के व्याख्याकारों ने उन पारिभाषिक शब्दों का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयास किया है। आचारांग में पवित्र आत्मार्थी श्रमणों के लिए "वसु" शब्द का प्रयोग मिलता है।“वसु" शब्द का प्रयोग वेद और उपनिषदों में पवित्र आत्मा का ही प्रतीक है, उसे हँस भी कहा है। "वसु' शब्द का वही अर्थ पारसी धर्म के मुख्य ग्रन्थ "अवेस्ता" में भी है। कहीं कहीं पर "वसु" शब्द का प्रयोग "देव" और धन के अर्थ में आया है।
आचारांग में आमगंध शब्द का प्रयोग हुआ है। वह अपवित्र पदार्थ के अर्थ में है। वही अर्थ बौद्ध साहित्य में भी मिलता है। बुद्ध ने कहा- प्राणघात, वध, छेद, चोरी, असत्य, वंचना, लूट, व्यभिचार आदि जितनी भी अनाचार मूलक प्रवृत्ति हैं वे सभी आमगंध हैं। इस प्रकार अनेक शब्द भाषा प्रयोग की दृष्टि से व्यापकता लिए हुए हैं।
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'न हि महाराज उदकं जीवति, नत्थि जीवो वा सत्ता वा । ' - मिलिन्द पण्हो, पृ० २५३ से २५५
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