________________
२८२
आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
___'तिरियाभित्तिं चक्खुमासज्ज अंतसो झाति' - इस पंक्ति से 'तिर्यभित्ति' का अर्थ विचारणीय है। भगवती सूत्र के टीकाकार अभयदेवसूरि 'तिर्यभित्ति' का अर्थ करते हैं - प्राकार, वरण्डिका आदि की भित्ति अथवा पर्वतखण्ड। ' बौद्ध साधकों में भी भित्ति पर दृष्टि टिका कर ध्यान करने की पद्धति रही है। इसलिए तिर्यभित्ति का अर्थ 'तिरछी भीत' ध्यान की परम्परा के उपयुक्त लगता है, किन्तु वृत्तिकार आचार्य शीलांक ने इस सूत्र को ध्यानपरक न मान कर गमनपरक माना है। 'झाति' शब्द का अर्थ उन्होंने ईर्यासमितिपूर्वक गमन करना बताया है तथा 'पौरुषी वीथी' संस्कृत रूपान्तर मानकर अर्थ किया है - पीछे से पुरुष प्रमाण (आदमकद) लम्बी वीथी (गली) और आगे से बैलगाड़ी के धूसर की तरह फैली हुयी (विस्तीर्ण) जगह पर नेत्र जमा कर यानी दत्तावधान हो कर चलते थे २ । ऐसा अर्थ करने में वृत्तिकार को बहुत खींचातानी करनी पड़ी है। इसलिए ध्यानपरक अर्थ ही अधिक सीधा और संगत प्रतीत होता है। जो ऊपर किया गया है।
ध्यान-साधना में विघ्न : पहला विघ्न - भगवान् महावीर जब पहर-पहर तक तिर्यभित्ति पर दृष्टि जमाकर ध्यान करते थे, तब उनकी आँखों की पुतलियाँ ऊपर उठ जातीं, जिन्हें देख कर बालकों की मण्डली डर जाती और बहुत से बच्चे मिलकर उन्हें 'मारो-मारो' कह कर चिल्लाते । वृत्तिकार ने 'हंता हंता बहवे कंदिसु'- बहुत से बच्चे मिलकर भगवान् को.धूल से भरी मुट्ठियों से मार-मार कर चिल्लाते, दूसरे बच्चे हल्ला मचाते कि देखो, देखो इस नंगे मुण्डित को, यह कौन है ? कहाँ से आया है ? किसका सम्बन्धी है ? आशय यह है कि बच्चों की टोली मिलकर इस प्रकार चिल्ला कर उनके ध्यान में विघ्न करती। पर महावीर अपने ध्यान में मग्न रहते थे। यह पहला विघ्न था।३
दूसरा विघ्न - भगवान् एकान्त स्थान न मिलने पर जब गृहस्थों और अन्यतीर्थिकों से संकुल स्थान में ठहरते तो उनके अद्भुत रूप-यौवन से आकृष्ट होकर कुछ कामातुर स्त्रियाँ आकर उनसे प्रार्थना करतीं, वे उनके ध्यान में अनेक प्रकार से विघ्न डालतीं, मगर महावीर अब्रह्मचर्य-सेवन नहीं करते थे, वे अपनी अन्तरात्मा में प्रविष्ट होकर ध्यानलीन रहते थे।
तीसरा विघ्न - भगवान् को ध्यान के लिए एकान्त शान्त स्थान नहीं मिलता, तो वे गृहस्थ-संकुल में ठहरते, पर वहाँ उनसे कई लोग तरह-तरह की बातें पूछकर या न पूछकर भी हल्ला-गुल्ला मचाकर ध्यान में विघ्न डालते, मगर भगवान् किसी से कुछ भी नहीं कहते । एकान्त क्षेत्र की सुविधा होती तो वे वहाँ से अन्यत्र चले जाते, अन्यथा मन को उन सब परिस्थितियों से हटाकर एकान्त बना लेते थे, किन्तु ध्यान का वे हर्गिज अतिक्रमण नहीं करते थे। ५
चौथा विघ्न - भगवान् अभिवादन करने वालों को भी आशीर्वचन नहीं कहते थे और पहले (चोरपल्ली आदि में) जब उन्हें कुछ अभागों ने डंडों से पीटा और उनके अंग-भंग कर दिए या काट खाया, तब भी उन्होंने शाप नहीं दिया था। स-मौन अपने ध्यान में मग्न रहे । यह स्थिति अन्य सब साधकों के लिए बड़ी कठिन थी।६।।
पाँचवाँ विन - उनमें से कोई कठोर दुःसह्य वचनों से क्षुब्ध करने का प्रयत्न करता, तो कोई उन्हें आख्यायिका, नृत्य, संगीत, दण्डयुद्ध, मुष्टियुद्ध आदि कार्यक्रमों में भाग लेने को कहता, जैसे कि एक वीणावादक ने
भगवती सूत्र वृत्ति पत्र ६४३-६४४ २. आचा० शीला० टीका पत्रांक ३०२ ३. आचा० शीला० टीका पत्र ३०२
४. आचा० शीला० टीका पत्र ३०२ ५. आचा० शीला० टीका पत्र ३०२ ६. (क) आचा० शीला० टीका पत्र ३०२ (ख) आचारांग चूर्णि पृ० ३०३
|