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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध __ निष्कर्ष यह है कि भगवान् पहले एक वस्त्रसहित दीक्षित हुए, फिर निर्वस्त्र हो गये, यह परम्परा के अनुसार किया गया था।
पाणजाइया - का अर्थ वृत्तिकार और चूर्णिकार दोनों 'भ्रमर आदि' ' करते हैं।
आरुसियाणं - का अर्थ चूर्णिकार करते हैं - 'अत्यन्त रुष्ट होकर' २ जबकि वृत्तिकार अर्थ करते हैं - माँस व रक्त के लिए शरीर पर चढ़कर....
ध्यान-साधना
२५८. अदु पोरिसिं तिरियभित्तिं चक्खुमासज अंतसो झाति ।
अह चक्खुभीतसहिया ते हंता हंता बहवे कंदिसु ॥४५॥ २५९. सयणेहिं वितिमिस्सेहिं इत्थीओ तत्थ से परिणाय ।
सागारियं न से सेवे इति से सयं पवेसिया झाति ॥४६॥ २६०. जे केयिमे अगारत्था मीसीभावं पहाय से झाति । . . पुट्ठो' वि णाभिभासिंसु गच्छति णाइवत्तती अंजू ॥४७॥ २६१. णो सुकरमेतमेगेसिं णाभिभासे अभिवादमाणे ।
हयपुव्वो तत्थ दंडेहिं लूसियपुव्वो अप्पपुण्णेहिं ॥ ४८॥ २६२. फरिसाइं दुत्तितिक्खाइं अतिअच्च मुणी परक्कमाणे ।
आघात-णट्ट-गीताई दंडजुद्धाइं मुट्ठिजुद्धाइं ॥ ४९॥ २६३. गढिए' मिहोकहासु समयम्मि णातसुते विसोगे अदक्खु।
एताइं से उरालाई गच्छति णायपुत्ते असरणाए ॥५०॥ आचा० शीला टीका पत्रांक ३०१ आरुसियाणं का अर्थ चूर्णिकार ने किया है - अच्चत्थं रुस्सित्ताणं आरुस्सित्ताणं । 'सागारियंण से सेवे' का अर्थ चूर्णि में इस प्रकार है - "सागारियं णाम मेहुणं तं ण सेवति ।" अर्थात् - सागारिक यानी मैथुन का सेवन नहीं करते थे। इसके बदले चूर्णि में पाठान्तर है - "पुढे व से अपुढे वा गच्छति णातिवत्तए अंजू।" अर्थ इस प्रकार है - किसी के द्वारा पूछने या न पूछने पर भगवान् बोलते नहीं थे, वे अपने कार्य में ही प्रवृत्त रहते। उनके द्वारा (भला-बुरा) कहे जाने पर भी वे सरलात्मा मोक्षपथ या ध्यान का अतिक्रमण नहीं करते थे। नागार्जुनीय सम्मत पाठान्तर यों है - "पुट्ठो व सो अपुट्ठो वा णो अणुजाणाति पावगं भगवं"- अर्थात् – पूछने पर या न पूछने पर भगवान् किसी पाप कर्म की अनुज्ञा अथवा अनुमोदना नहीं करते थे। "गढिए मिहोकहा समयम्मि गच्छति णातिवत्तए अदक्खु" आदि पाठान्तर मान कर चूर्णिकार ने इस प्रकार अर्थ किया है - "गढिते विधूतसमयं ति गढितं, यदुक्तं भवति बद्धं...''मिहो कहा समयो' एवमादी यो गच्छति णातिवत्तए-गतहरिसेअरत्ते अदुढे अणुलोमपडिलोमेसु विसोगे विगतहरिसे अदक्खु त्ति दटुं।" अर्थात् - परस्पर कामकथा आदि बातों में व्यर्थ समय को खोते देख कर अथवा उन बातों में परस्पर उलझे देखकर भगवान् चल पड़ते, न तो वे हर्षित होते, न अनुरक्त और न ही द्वेष करते। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ देखकर वे हर्ष-शोक से रहित रहते थे।
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