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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
विवेचन - दीक्षा से लेकर वस्त्र-परित्याग तक की चर्या - पिछले चार सूत्रों में भगवान् महावीर की दीक्षा, कब, कैसे हुई ? वस्त्र के सम्बन्ध में क्या प्रतिज्ञा ली ? क्यों और कब तक उसे धारण करते रहे, कब छोड़ा? उनके सुगन्धित तन पर सुगन्ध-लोलुप प्राणी कैसे उन्हें सताते थे? आदि चर्या का वर्णन है।
'उट्ठाए' का तात्पर्य तीन प्रकार के उत्थानों में से मुनि-दीक्षा के लिए उद्यत होना है। वृत्तिकार इसकी व्याख्या करते हैं - समस्त आभूषणों को छोड़कर पंचमुष्टि लोच करके, इन्द्र द्वारा कन्धे पर डाले हुए एक देवदूष्य वस्त्र से युक्त, सामायिक की प्रतिज्ञा लिए हुए मनःपर्यायज्ञान को प्राप्त भगवान् अष्टकर्मों का क्षय करने हेतु तीर्थ-प्रवर्तनार्थ दीक्षा के लिए उद्यत होकर.....।'
तत्काल विहार क्यों ? - भगवान् दीक्षा लेते ही कुण्डग्राम (दीक्षास्थल) से दिन का एक मुहूर्त शेष था, तभी विहार करके कर्मारग्राम पहुँचे। इस तत्काल विहार के पीछे रहस्य यह था कि अपने पूर्व परिचित सगे-सम्बन्धियों के साथ साधक के अधिक रहने से अनुराग एवं मोह जागृत होने की अधिक सम्भावना है। मोह साधक को पतन की ओर ले जाता है। अतः भगवान् ने भविष्य में आने वाले साधकों के अनुसरणार्थ स्वयं आचरण करके बता दिया। इसीलिए शास्त्रकार ने कहा है - 'अहुणा पव्वइए रीइत्था'। ३
___ भगवान् का अनुधार्मिक आचरण - सामायिक की प्रतिज्ञा लेते ही इन्द्र ने उनके कन्धे पर देवदूष्य वस्त्र डाल दिया। भगवान् ने भी निःसंगता की दृष्टि से तथा दूसरे मुमुक्षु धर्मोपकरण के बिना संयमपालन नहीं कर सकेंगे, इस भावी अपेक्षा से मध्यस्थवृत्ति से उस वस्त्र को धारण कर लिया, उनके मन में उसके उपभोग की कोई इच्छा नहीं थी। इसीलिए उन्होंने प्रतिज्ञा की कि "मैं लज्जानिवारणार्थ या सर्दी से रक्षा के लिए वस्त्र से अपने शरीर को आच्छादित नहीं करूँगा।"
प्रश्न होता है कि जब वस्त्र का उन्हें कोई उपयोग ही नहीं करना था, तब उसे धारण ही क्यों किया? इसके समाधान में कहा गया है - 'एतं खु अणुधम्मियं तस्स' उनका यह आचरण अनुधार्मिक था। वृत्तिकार ने इसका अर्थ यों किया है कि यह वस्त्र-धारण पूर्व तीर्थंकरों द्वारा आचरित धर्म का अनुसरण मात्र था। अथवा अपने पीछे आने वाले साधु-साध्वियों के लिए अपने आचरण के अनुरूप मार्ग को स्पष्ट करने हेतु एक वस्त्र धारण किया।
इस स्पष्टीकरण को आगम का पाठ भी पुष्ट करता है, जैसे - मैं कहता हूँ, जो अरिहन्त भगवान् अतीत में हो चुके हैं, वर्तमान में हैं, और जो भविष्य में होंगे, उन्हें सोपधिक (धर्मोपकरणयुक्त) धर्म को बताना होता है, इस दृष्टि से तीर्थधर्म के लिए यह अनुधर्मिता है। इसीलिए तीर्थंकर एक देवदूष्य वस्त्र लेकर प्रव्रजित हुए हैं, प्रव्रजित होते हैं एवं प्रव्रजित होंगे।
एक आचार्य ने कहा भी है -
आचा० शीला० टीका पत्रांक ३०१ आवश्यकचूर्णि पूर्व भाग पृ० २६८ आचारांग टीका (पू०आ० श्री आत्माराम जी महाराज कृत) पृ०६४३ आचा० शीला० टीका पत्रांक २६४ "से बेमि जे य अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो जे य पव्वयंति जे अपव्वइस्संति सव्वे ते सोवहिधम्मो देसिअव्वो त्ति कटु तित्थधम्मयाए एसा अणुधम्मिगत्ति एगं देवदूसमायाए पव्वइंसु वा पव्वयंति वा पव्वइस्संति वत्ति।"
- आचारांग टीका पत्रांक ३०१