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इस अध्ययन के चार उद्देशक हैं, चारों में भगवान् के तपोनिष्ठ जीवन की झलक है। प्रथम उद्देशक में भगवान् की चर्या का, द्वितीय उद्देशक में उनकी शय्या (आसेवितस्थान
और आसन) का, तृतीय उद्देशक में भगवान् द्वारा सहे गये परीषह-उपसर्गों का और चतुर्थ उद्देशक में क्षुधा आदि से आतंकित होने पर उनकी चिकित्सा का वर्णन है।' अध्ययन का उद्देश्य - पूर्वोक्त आठ अध्ययनों में प्रतिपादित साध्वाचार विषयक साधना कोरी कल्पना ही नहीं है, इसके प्रत्येक अंग को भगवान् ने अपने जीवन में आचरित किया था, ऐसा दृढ़ विश्वास प्रत्येक साधक के हृदय में जाग्रत हो और वह अपनी साधना निःशंक व निश्चलभाव के साथ संपन्न कर सके, यह प्रस्तुत अध्ययन का उद्देश्य है। इस अध्ययन में सूत्र संख्या २५४ से प्रारम्भ होकर ३२३ पर समाप्त होती है। इसी के साथ प्रथम श्रुतस्कन्ध भी पूर्ण हो जाता है।
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(क) आचारांग नियुक्ति गा० २७९ (ख) आचा० शीला० टीका पत्रांक २९६ (क) आचारांग नियुक्ति गा० २७९ (ख) आचा० शीला० टीका पत्रांक २९६