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________________ षष्ठ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र १७९-१८० १८१ को कष्ट देता है (अथवा प्राणियों में क्लेश पहुँचाता हुआ वह धृष्ट (बेदर्द) हो जाता है)। . इन (पूर्वोक्त) अनेक रोगों को उत्पन्न हुए जानकर (उन रोगों की वेदना से) आतुर मनुष्य (चिकित्सा के लिए दूसरे प्राणियों को) परिताप देते हैं। तू (विशुद्ध विवेकदृष्टि से) देख। ये (प्राणिघातक-चिकित्साविधियाँ कर्मोदयजनित रोगों का शमन करने में पर्याप्त) समर्थ नहीं हैं। (अतः जीवों को परिताप देने वाली) इन (पापकर्मजनक चिकित्साविधियों) से तुमको दूर रहना चाहिए। मुनिवर ! तू देख ! यह (हिंसामूलक चिकित्सा) महान् भयरूप है। (इसलिए चिकित्सा के निमित्त भी) किसी प्राणी का अतिपात/वध मत कर। विवेचन - पिछले सूत्रों में बताया है - आसक्ति में फंसा हुआ मनुष्य धर्म का आचरण नहीं कर पाता तथा वह मोह एवं वासना में गृद्ध होकर कर्मों का संचय करना चाहता है। आगमों में बताये गये कर्म के मुख्यतः तीन प्रकार किये जा सकते हैं - (१) क्रियमाण (वर्तमान में किया जा रहा कर्म), (२) संचित (जो कर्म-संचय कर लिया गया है, पर अभी उदय में नहीं आया - वह बद्ध), (३) प्रारब्ध (उदय में आने वाला कर्म या भावी)। क्रियमाण - वर्तमान में जो कर्म किया जाता है, वही संचित होता है तथा भविष्य में प्रारब्ध रूप में उदय में आता है। कृत-कर्म जब अशुभ रूप में उदय आता है, तब प्राणी उनके विपाक से अत्यन्त दु:खी, पीड़ित व त्रस्त हो उठता है। प्रस्तुत सूत्र में यही बात बताई है कि ये अपने कृत-कर्म (आयत्ताए- अपने ही किये कर्म) इस प्रकार विविध रोगातंकों के रूप में उदय में आते हैं। तब अनेक रोगों से पीड़ित मानव उनके उपचार के लिए अनेक प्राणियों का वध करता-कराता है। उनके रक्त, मांस, कलेजे, हड्डी आदि का अपनी शारीरिक-चिकित्सा के लिए वह उपयोग करता है, परन्तु प्राय: देखा जाता है कि उन प्राणियों की हिंसा करके चिकित्सा कराने पर भी रोग नहीं जाता, क्योंकि रोग का मूल कारण विविध कर्म हैं, उनका क्षय या निर्जरा हुए बिना रोग मिटेगा कहाँ से? परन्तु मोहावृत अज्ञानी इस बात को नहीं समझता। वह प्राणियों को पीड़ा पहुँचाकर और भी भयंकर कर्मबन्ध कर लेता है। इसीलिए मुनि को इस प्रकार की हिंसामूलक चिकित्सा के लिए सूत्र १८० में निषेध किया गया है। फासा य असमंजसा - जिन्हें धूतवाद का तत्त्वज्ञान (आत्मज्ञान) प्राप्त नहीं होता, वे अपने अशुभ कर्मों के फलस्वरूप पूर्वोक्त १६ तथा अन्य अनेक रोगों में से किसी भी रोग के शिकार होते हैं, साथ ही असमंजस स्पर्शों का भी उन्हें अनुभव होता है। यहाँ चूर्णिकार ने तीन पाठ माने हैं - (१) फासा य असमंजसा (२) फासा य असमंतिया, (३) फासा य असमिता। इन तीनों का अर्थ भी समझ लेना चाहिए। असमंजस का अर्थ है - उलटपलट हो, जिनका परस्पर कोई मेल न बैठता हो, ऐसे दु:खस्पर्श । असमंतिया का अर्थ है - असमंजितस्पर्श यानी जो स्पर्श पहले कभी प्राप्त न हुए हों, ऐसे अप्रत्याशित प्राप्त स्पर्श और असमित स्पर्श का अर्थ है - विषम स्पर्श, तीव्र, मन्द या मध्यम दुःखस्पर्श । आकस्मिक रूप से होने वाले दुःखों का स्पर्श ही अज्ञ-मानव को अधिक पीड़ा देता है। संति पाणा अंधा - अंधे दो प्रकार से होते हैं - द्रव्यान्ध और भावान्ध । द्रव्यान्ध नेत्रों से हीन होता है और भावान्ध सद्-असद्-विवेकरूप भाव चक्षु से रहित होता है। इसी प्रकार अन्धकार भी दो प्रकार का होता है - द्रव्यान्धकार - जैसे नरक आदि स्थानों में घोर अंधेरा रहता है और भावान्धकार - कर्मविपाकजन्य मिथ्यात्व, १. आचा० शीला० टीका पत्रांक २१२
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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