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षष्ठ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र १७९-१८०
१७९ दोनों ही प्रकार के मोहमूढ पुरुष केवलीप्ररूपति धर्म का, आत्म-कल्याण का अवसर पाने से वंचित रह जाते हैं और वे संसार के दुःखों से त्रस्त होते हैं।
जैसे वृक्ष दुःख पाकर भी अपना स्थान नहीं छोड़ पाता, वैसे ही पूर्व-संस्कार, पूर्वग्रह - मिथ्या-दृष्टि, कुल का अभिमान, साम्प्रदायिक अभिनिवेश आदि की पकड़ के कारण वह संसार में अनेक प्रकार के कष्ट पाकर भी उसे छोड़ नहीं सकता।
आत्म-कृत दुःख
१७९. अह पास तेहिं । कुलेहिं आयत्ताए जायागंडी अदुवा कोढी रायंसी अवमारियं । काणियं झिमियं चेव कुणितं खुजितं तहा ॥१३॥ उदरं च पास मूइंच सूणियं च गिलासिणिं । वेवई पीढसप्पिं च सिलिवयं मधुमेहणिं ॥१४॥ सोलस एते रागा अक्खाया अणुपुव्वसो । अह णं फुसंति आतंका फासा य असमंजसा ॥१५॥ १८०. मरणं तेसिं सपेहाए उववायं चयणं च णच्चा परिपागं च सपेहाए, तं सुणेह जहा तहा। संति पाणा अंधा तमंसि वियाहिता। तामेव सई असई अतियच्च उच्चावचे फासे पडिसंवेदेति। बुद्धेहिं एवं पवेदितं । संति पाणा वासगा रसगा उदए उदयचरा आगासगामिणो ।
इसके बदले चूर्णि में पाठ है - 'तेहिं तेहिं कुलेहिं जाता' - उन-उन कुलों में पैदा हुए। २. इसके बदले 'सिमियं' पाठ है। चूर्णि में अर्थ किया है -सिमिता अलसयवाही- सिमिता आलस्यवाही व्याधि।
'सूणियं' के बदले किसी-किसी प्रति में सूणीयं, पाठ मिलता है। चूर्णिकार इसका अर्थ करते हैं - 'सूणीया सूणसरीरा' - शरीर का शून्य हो जाना, शून्य रोग है। गिलासिणिं का अर्थ वृत्तिकार 'भस्मकव्याधि' करते हैं। 'सिलिवयं' के बदले चूर्णि में 'सिलवती' पाठ है। अर्थ किया गया है - 'सिलवती पादा सिलीभवंति' श्लीपद- हाथीपगा रोग
में पैर सूज कर हाथी की तरह हो जाते हैं। ६. इसके अतिरिक्ति चूर्णिकार ने तीन पाठ माने हैं - (१) 'फासा ""असमंतिया' (२) 'फासा""असममिता, (३) फासा य
असमंजसा । क्रमशः अर्थ किये हैं -(१) असमंतिया नाम अप्पत्तपुव्वा, (२) असमिता असमिता णाम विसमा तिव्वमंदमज्झा, (३) अहवा फासा य असमंजसा उल्लत्थ पल्लत्था।" अर्थात् असमंत्रिता - अप्राप्तपूर्वस्पर्श, जो स्पर्श अप्रत्याशित रूप में प्राप्त हुए हों, अपूर्व हों। असमिता का अर्थ है - विषम - तीव्र-मन्द-मध्यम स्पर्श अथवा जो स्पर्श उलट-पलट हों, उन्हें असमंजस स्पर्श कहते हैं। इसके बदले चूर्णि में पाठ है - 'मरणं (च)तत्थ सपेहाए।' अर्थ किया गया है - मरणं तत्थ समिक्खिज, जसद्दा जम्मणं
च - साथ ही उनमें मरण की भी सम्यक् समीक्षा करके, च शब्द से 'जन्म' का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। ८. इसके बदले चूर्णि में 'तमं पविट्ठा' पाठ है। जिसका अर्थ किया गया है - अन्धकार में प्रविष्ट।
इसके बदले किसी-किसी प्रति में 'तामेव सयं असई अतिगच्च०' सयं का अर्थ स्वयं है, बाकी के अर्थ समान हैं। चूर्णि में पाठान्तर मिलता है - 'उच्चावते फासे......पडिवेदेति'। अर्थ वही है।
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