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पंचम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र १५९-१६० ।।
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१६०. इस प्रकार कर्म (और उसके कारण) को सम्यक् प्रकार जानकर वह (साधक) सब प्रकार से (किसी जीव की) हिंसा नहीं करता, (शुद्ध) संयम का आचरण करता है, (असंयम-कर्मों या अकार्य में प्रवृत्त होने पर) धृष्टता नहीं करता।
प्रत्येक प्राणी का सुख अपना-अपना (प्रिय) होता है, यह देखता हुआ (वह किसी की हिंसा न करे)।
मुनि समस्त लोक (सभी क्षेत्रों) में कुछ भी (शुभ या अशुभ) आरम्भ (हिंसा) तथा प्रशंसा का अभिलाषी होकर न करे।
___ मुनि अपने एकमात्र लक्ष्य - मोक्ष की ओर मुख करके (चले), वह (मोक्षमार्ग से) विपरीत दिशाओं को तेजी से पार कर जाए, (शरीरादि पदार्थों के प्रति) विरक्त (ममत्व-रहित) होकर चले, स्त्रियों के प्रति अरत (अनासक्त) रहे।
संयमधनी मुनि के लिए सर्व समन्वागत प्रज्ञारूप (सम्पूर्णसत्य-प्रज्ञात्मक) अन्त:करण से पापकर्म अकरणीय है, अतः साधक उनका अन्वेषण न करे।
विवेचन - 'इमेण चेव जुज्झाहि....जुद्धारिहं खलु दुल्लभं' - साधना के पूर्वोक्त आठ मूलमंत्रों को सुनकर कुछ शिष्यों ने जिज्ञासा प्रस्तुत की - 'भंते ! भेद-विज्ञान की भावना के साथ हम रत्नत्रय की साधना में पराक्रम करते रहते हैं, अपनी शक्ति जरा भी नहीं छिपाते, आपके उपदेशानुसार हम साधना में जुट गये लेकिन अभी तक हमारे समस्त कर्ममलों का क्षय नहीं हो सका, अतः समस्त कर्ममलों से रहित होने का असाधारण उपाय बताइए ।'
___ इस पर भगवान् ने उनसे पूछा - 'क्या तुम और अधिक पराक्रम कर सकोगे?' वे बोले - 'अधिक तो क्या बताएँ, लौकिक भाषा में सिंह के साथ हम युद्ध कर सकते हैं, शत्रुओं के साथ जूझना और पछाड़ना तो हमारे बाएँ हाथ का खेल है।'
इस पर भगवान् ने कहा - 'वत्स ! यहाँ इस प्रकार का बाह्य युद्ध नहीं करना है, यहाँ तो आन्तरिक युद्ध करना है। यहाँ तो स्थूल शरीर और कर्मों के साथ लड़ना है । यह औदारिक शरीर, जो इन्द्रियों और मन के शस्त्र लिए हुए है, विषय-सुखपिपासु है और स्वेच्छाचारी बनकर तुम्हें पचा रहा है, इसके साथ युद्ध करो और उस कर्मशरीर के साथ लड़ो, जो वृत्तियों के माध्यम से तुम्हें अपना दास बना रहा है, काम, क्रोध, मद, लोभ, मत्सर आदि सब कर्मशत्रु की सेना है, इसलिए तुम्हें कर्मशरीर और स्थूल-शरीर के साथ आन्तरिक युद्ध करके कर्मों को क्षीण कर देना है। किन्तु 'इस भावयुद्ध' के योग्य सामग्री का प्राप्त होना अत्यन्त दुष्कर है।' यह कहकर उन्होंने इस आन्तरिक युद्ध के योग्य सामग्री की प्रेरणा दी जो यहाँ 'जहेत्थ कुसलेहिं....' से लेकर 'णो अण्णेसी' तक अंकित है।
आन्तरिक युद्ध के लिए दो शस्त्र बताए हैं - परिज्ञा और विवेक। परिज्ञा से वस्तु का सर्वतोमुखी ज्ञान करना है और विवेक से उसके पृथक्करण की दृढ़ भावना करनी है। विवेक कई प्रकार का होता है - धन, धान्य, परिवार, शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि से पृथक्त्व/भिन्नता का चिन्तन करना, परिग्रह-विवेक आदि है। कर्म से आत्मा के पृथक्त्व की दृढ़ भावना करना कर्म-विवेक है और ममत्व आदि विभावों से आत्मा को पृथक् समझना - भाव-विवेक है।'
'रूवंसि वा छणंसि वा' - यहाँ रूप शब्द समस्त इन्द्रिय-विषयों का तथा शरीर का, एवं 'क्षण' शब्द हिंसा के अतिरिक्त असत्य, चौर्य, मैथुन और परिग्रह का सूचक है, क्योंकि यहाँ दोनों शब्दों के आगे 'वा' शब्द आये हैं। १. आचा० शीला० टीका पत्रांक १९१ २. आचा० शीला० टीका पत्रांक १९१