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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध (समभावपूर्वक) सहन करें।'
यह प्रिय लगने वाला शरीर पहले या पीछे (एक न एक दिन) अवश्य छूट जाएगा। इस रूप-सन्धि-देह के स्वरूप को देखो, छिन्न-भिन्न और विध्वंस होना, इसका स्वभाव है। यह अध्रुव है, अनित्य है, अशाश्वत है, इसमें उपचय-अपचय (बढ़-घट) होता रहता है, विविध परिवर्तन होते रहना इसका स्वभाव है।
जो (अनित्यता आदि स्वभाव से युक्त शरीर के स्वरूप को और इस शरीर को मोक्ष-लाभ के अवसर - सन्धि के रूप में देखता है), आत्म-रमण रूप एक आयतन में लीन है, (शरीर और शरीर से सम्बन्धित पदार्थों की -) मोह ममता से मुक्त है, उस हिंसादि से विरत साधक के लिए संसार-भ्रमण का मार्ग नहीं है - ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - इस उद्देशक के पूर्वार्द्ध में अप्रमाद क्यों, क्या और कैसे? इस पर कुछ सूत्रों में सुन्दर प्रकाश डाला गया है। उसके उत्तरार्द्ध में प्रमाद के एक अन्यतम कारण परिग्रहवृत्ति के त्याग पर प्रेरणादायक सूत्र अंकित है।
अप्रमाद के पथ पर चलने के लिए एक सजग प्रहरी की भाँति सचेष्ट और सतर्क रहना पड़ता है। खासतौर से उसे शरीर पर - स्थूल शरीर पर ही नहीं, सूक्ष्म कार्मण शरीर पर - विशेष देखभाल रखनी पड़ती है। इसकी हर गतिविधि की बारीकी से जांच-परख कर आगे बढ़ना होता है। अगर अष्टविध ' प्रमाद में से कोई भी प्रमाद जरा भी भीतर में घुस आया तो वह आत्मा की गति-प्रगति को रोक देगा, इसलिए प्रमाद के मोर्चों (संधि) पर बराबर निगरानी रखनी चाहिए। जैसे-जैसे साधक अप्रमत्त होकर स्थूल शरीर की क्रियाओं और उससे मन पर होने वाले प्रभावों को देखने का अभ्यास करता जाता है, वैसे-वैसे कार्मण शरीर की गतिविधि को देखने की शक्ति भी आती जाती है। शरीर के सूक्ष्म दर्शन का इस तरह दृढ़ अभ्यास होने पर अप्रमाद की गति बढ़ती है और शरीर से प्रवाहित होने वाली चैतन्य-धारा की उपलब्धि होने लगती है। इसीलिए यहाँ कहा गया है - 'एस मग्गे आरिएहिं पवेदिते।'
आरम्भ और अनारम्भ : साधु-जीवन में - साधु गृहस्थाश्रम के बाह्य आरम्भों से बिलकुल दूर रहता है, परन्तु साधना-जीवन में उसकी दैनिकचर्या के दौरान कई आरम्भ प्रमादवश हो जाते हैं । उस प्रमाद को यहाँ आरम्भ कहा गया है -
"आदाणे निक्खेवे भासुस्सग्गे अठाण-गमणाई।
सव्वो पमत्तजोगो समणस्सऽवि होइ आरंभो ॥२" - अपने धर्मोपकरणों या संयम-सहायक साधनों को उठाने-रखने, बोलने, बैठने, गमन करने, भिक्षादि द्वारा आहार का ग्रहण एवं सेवन करने एवं मल-मूत्रादि का उत्सर्ग करने आदि में श्रमण का भी मन-वचन-काया से समस्त प्रमत्त योग आरम्भ है।' आशय यह है कि गृहस्थ जहाँ सावध कार्यों में प्रवृत्त होते हैं, वहाँ साधु निरवद्य कार्यों में ही प्रवृत्त होते हैं। आरम्भजीवी गृहस्थ का भिक्षा, स्थान आदि के रूप में सहयोग प्राप्त करके भी, उनके बीच रहकर
भी वे आरम्भ में लिप्त - आसक्त नहीं होते। इसलिए वे आरम्भजीवी में भी अनारम्भजीवी रहते हैं। संसार में रहते हुए भी वे जल-कमलवत् निर्लेप रहते हैं । शरीर-साधनार्थ भी वे निरवद्य विधि से जीते हैं। यही - अनारम्भजीवी
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प्रमाद के पांच, छह तथा आठ भेद हैं। (क) १ मद्य, २ विषय, ३ कषाय, ४ निद्रा, ५ विकथा। (उत्त०नि० १८०)। (ख) १ मद्य, २ निद्रा, ३ विषय, ४ कषाय,५ द्यूत, ६ प्रतिलेखन (स्था०६)। (ग) १ अज्ञान, २ संशय, ३ मिथ्याज्ञान, ४ राग, ५ द्वेष, ६ स्मृतिभ्रंश, ७ धर्म में अनादर, ८ योग-दुष्प्रणिधान (प्रव०द्वार २०७) - देखें, अभिराजे० भाग ५, पृ० ४८० आचा० शीला० टीका पत्रांक १८५
३. आचा० शीला० टीका पत्रांक १८६