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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
प्ररूपित, अनुभूत, केवलज्ञान द्वारा दृष्ट अहिंसा धर्म की सार्वभौमिकता की घोषणा करते हैं।'
आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण में थोड़ा-थोड़ा अन्तर है। दूसरों के द्वारा प्रश्न किये जाने पर उसका उत्तर देना आख्यान - कथन है, देव-मनुष्यादि की परिषद् में बोलना - भाषण कहलाता है, शिष्यों की शंका का समाधान करने के लिए कहना'प्रज्ञापन' है, तात्त्विक दृष्टि से किसी तत्त्व या पदार्थ का निरूपण करना 'प्ररूपण' है।
प्राण, भूत, जीव और सत्व वैसे तो एकार्थक माने गए हैं, जैसे कि आचार्य जिनदास कहते हैं - 'एगट्ठिता वा एते' किन्तु इन शब्दों के कुछ विशेष अर्थ भी स्वीकार किए गये हैं। ३ ।।
"हंतव्वा' से लेकर 'उद्देवेयव्वा' तक हिंसा के ही विविध प्रकार बताये गये हैं । इनका अर्थ पृथक्-पृथक् इस प्रकार है -
'हंतव्वा' - डंडा/चाबुक आदि से मारना-पीटना। 'अजावेतव्वा' - बलात् काम लेना, जबरन आदेश का पालन कराना, शासित करना। 'परिधेत्तव्वा' - बंधक या गलाम बनाकर अपने कब्जे में रखना। दास-दासी आदि रूप में रखना। 'परितावेयवा' ५ - परिताप देना. सताना. हैरान करना. व्यथित करना। "उद्देवेयव्वा' - प्राणों से रहित करना, मार डालना।
यह अहिंसा धर्म किंचित हिंसादि से मिश्रित या पापानुबन्धयुक्त नहीं है, इसे द्योतित करने हेतु 'शुद्ध' विशेषण का प्रयोग किया गया है। या त्रैकालिक और सार्वदेशिक, सदा सर्वत्र विद्यमान होने से इसे 'नित्य' कहा है, क्योंकि पंचमहाविदेह में तो यह सदा रहता है। शाश्वत इसलिए कहा है कि यह शाश्वत - सिद्धगति का कारण है।
भगवान् महावीर ने प्रत्येक आत्मा में ज्ञानादि अनन्त क्षमताओं का निरूपण करके सबको स्वतन्त्र रूप से सत्य की खोज करने की प्रेरणा दी - 'अप्पणा सच्चमेसेज्जा' - यह कहकर । यही कारण है कि उन्होंने किसी पर अहिंसा धर्म के विचार थोपे नहीं, यह नहीं कहा कि "मैं कहता हूँ, इसलिए स्वीकार कर लो।" बल्कि भूत, भविष्य, वर्तमान के सभी तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित है, इसलिए यह अहिंसाधर्म सार्वभौमिक है, सर्वजन-ग्राह्य है, व्यवहार्य है, सर्वज्ञों ने १. अतीत के तीर्थकर अनन्त हैं, क्योंकि काल अनादि होता है। भविष्य के भी अनन्त हैं, क्योंकि आगामी काल भी अनन्त है,
वर्तमान में कम से कम (जघन्य)२० तीर्थंकर हैं जो पांच महाविदेहों में से प्रत्येक में चार-चार के हिसाब से हैं। अधिक से अधिक (उत्कृष्ट) १७० तीर्थकर हो सकते हैं। महाविदेह क्षेत्र ५ हैं, उनमें प्रत्येक में ३२-३२ तीर्थंकर होते हैं, अतः ३२४५ १६० तीर्थकर हुए।५ भरत क्षेत्रों में पांच और ५ ऐरावत क्षेत्रों में पांच-यों कुल मिलाकर एक साथ १७० तीर्थंकर हो सकते हैं। कुछ आचार्यों का कहना है कि मेरु पर्वत से पूर्व और अपर महाविदेह में एक-एक तीर्थकर होते हैं,यों ५ महाविदेहों में १० तीर्थकर विद्यमान होते हैं। जैसा कि एक आचार्य ने कहा है
सत्तरसयमुक्कोसं, इअरे दस समयखेत्तजिणमाणं ।
चोत्तीस पढमदीवे अणंतरद्धे य ते दुगुणा ॥ -आचा० वृत्ति पत्र १६२ २. आचा० शीला० टीका पत्रांक १६२
देखिए प्रथम अध्ययन सूत्रांक ४९ का विवेचन आचा० नियुक्ति गा० २२५, २२६ तथा आचा० शीला० टीका पत्रांक १६२ परितापना के विविध प्रकारों के चिन्तन के लिए ऐर्यापथिक (इरियावहिया) सूत्र में गठित 'अभिहया' से लेकर 'जीवियाओ. ववरोविआ' तक का पाठ देखें।
-श्रमणसूत्र (उपा० अमरमुनि) पृ० ५४ आचा० शीला० टीका पत्रांक १६३