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________________ सम्पादकीय [ प्रथम संस्करण से ] 'आचारांग' सूत्र का अध्ययन, अनुशीलन व अनुचिन्तन मेरा प्रिय विषय रहा है। इसके अर्थ - गम्भीर सूक्तों पर जब-जब भी चिन्तन करता हूँ तो विचार- चेतना में नयी स्फुरणा होती है, आध्यात्मिक प्रकाश की एक नयी किरण चमकतीसी लगती है। - श्रद्धेय श्री मधुकर मुनि जी ने आगम- सम्पादन का दायित्व जब विभिन्न विद्वानों को सौंपना चाहा तो सहज रूप में ही मुझे आचारांग का सम्पादन- विवेचन कार्य मिला। इस गुरु- गम्भीर दायित्व को स्वीकारने में जहाँ मुझे कुछ संकोच था, वहाँ आचारांग के साथ अनुबंधित होने के कारण प्रसन्नता भी हुयी और मैंने अपनी सम्पूर्ण शक्ति का नियोजन इस पुण्य कार्य में करने का संकल्प स्वीकार कर लिया । आचारांग सूत्र का महत्त्व, विषय-वस्तु तथा रचयिता आदि के सम्बन्ध में श्रद्धेय श्री देवेन्द्र मुनिजी ने प्रस्तावना में विशद प्रकाश डाला है। अतः पुनरुक्ति से बचने के लिए पाठकों को उसी पर मनन करने का अनुरोध करता हूँ । यहाँ मैं आचारांग के विषय में अपना अनुभव तथा प्रस्तुत सम्पादन के सम्बन्ध में ही कुछ लिखना चाहता हूँ । दर्शन, अध्यात्म व आचार की त्रिपुटी : आचारांग जिनवाणी के जिज्ञासुओं में आचारांग सूत्र का सबसे अधिक महत्त्व है। यह गणिपिटक का सबसे पहला अंग आगम है। चाहे रचना की दृष्टि से हो, या स्थापना की दृष्टि से, पर यह निर्विवाद है कि उपलब्ध आगमों में आचारांग सूत्र रचना - शैली, भाषा-शैली तथा विषय-वस्तु की दृष्टि से अद्भुत व विलक्षण है। आचार की दृष्टि से तो उसका महत्त्व है ही किन्तु दर्शन की दृष्टि से भी वह गम्भीर है। आगमों के विद्वान् सूत्रकृतांग को दर्शन-प्रधान व आचारांग को आचार-प्रधान बताते हैं, किन्तु मेरा अनुशीलन कहता है - आचारांग भी गूढ़ दर्शन व अध्यात्म प्रधान आगम है। सूत्रकृत की दार्शनिकता तर्क-प्रधान है, बौद्धिक है, जबकि आचारांग की दार्शनिकता अध्यात्म-प्रधान है। यह दार्शनिकता औपनिषदिक शैली में गुम्फित है। अतः इसका सम्बन्ध प्रज्ञा की अपेक्षा श्रद्धा से अधिक है। आचारांग का पहला सूत्र दर्शनशास्त्र का मूल बीज है- आत्म-जिज्ञासा' और इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध का अंतिम सूत्र है - भगवान् महावीर का आत्म-शुद्धि मूलक पवित्र चरित्र और उसका आदर्श । १. २. आत्म- दृष्टि, अहिंसा, समता, वैराग्य, अप्रमाद, निस्पृहता, निःसंगता, सहिष्णुता - आचारांग के प्रत्येक अध्ययन में इनका स्वर मुखरित है। समता, निःसंगता के स्वर तो बार-बार ध्वनित होते से लगते हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध (आचारचूला) भी श्रमण के आचार का प्रतिपादक मात्र नहीं है, किन्तु उसका भी मुख्य स्वर समत्व, अचेलत्व, ध्यान-सिद्धि व मानसिक पवित्रता से ओत-प्रोत है। इस प्रकार आचारांग का सम्पूर्ण आन्तर- अनुशीलन करने के बाद मेरी यह धारणा बनी है कि दर्शन, अध्यात्म व आचार-धर्म की त्रिपुटी है - आचारांग सूत्र । के अहं आसी के वा इओ चुते पेच्चा भविस्सामि - सूत्र १ एस विही अणुक्कंतो माहणेण मतीमता सूत्र ३२३ [१२]
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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