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सुप्त- जाग्रत
'सीओसणिज्जं' तइअं अज्झयणं पढमो उद्देसओ
'शीतोष्णीय' : तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक
१०६. सुत्ता अमुणी मुणिणो सया जागरंति । लोगंसि जाण अहियाय दुक्खं ।
समयं लोगस्स जाणित्ता एत्थ सत्थोवरते ।
१०६. अमुनि (अज्ञानी) सदा सोये हुए हैं, मुनि (ज्ञानी) सदैव जागते रहते हैं ।
इस बात को जान लो कि लोक में अज्ञान (दुःख) अहित के लिए होता है ।
लोक (षड् जीव-निकायरूप संसार) में इस आचार (समत्व भाव) को जानकर (संयमी पुरुष) (संयम में बाधक - हिंसा, अज्ञानादि) जो शस्त्र हैं, उनसे उपरत रहे ।
विवेचन - यहाँ 'मुनि' शब्द सम्यग्ज्ञानी, सम्यग्दृष्टि एवं मोक्ष मार्ग-साधक के अर्थ में प्रयुक्त है । जिन्होंने मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग रूप भाव-निद्रा का त्याग कर दिया है, जो सम्यक्बोध प्राप्त हैं और मोक्ष-मार्ग से स्खलित नहीं होते, वे मुनि हैं। इसके विपरीत जो मिथ्यात्व, अज्ञान आदि से ग्रस्त हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, वे 'अमुनि' - अज्ञानी हैं। यहाँ भाव-निद्रा की प्रधानता से अज्ञानी को सुप्त और ज्ञानी को जागृत कहा गया है। सुत दो प्रकार के हैं - द्रव्यसुप्त और भावसुप्त । निद्रा-प्रमादवान् द्रव्यसुप्त हैं। जो मिथ्यात्व, अज्ञान आदि रूप महानिद्रा से व्यामोहित हैं, वे भावसुप्त हैं। अर्थात् जो आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से बिल्कुल शून्य, मिथ्यादृष्टि, असंयमी और अज्ञानी हैं, वे जागते हुए भी भाव से - आन्तरिक दृष्टि से सुप्त हैं। जो कुछ सुप्त हैं, कुछ जागृत हैं, संयम के मध्यबिन्दु में हैं, वे देशविरत श्रावक सुप्त जागृत हैं और जो पूर्ण रूप से जागृत हैं उत्कृष्ट संयमी और ज्ञानी हैं, वे जागृत हैं।
१.
वृत्तिकार ने मुनि का निर्वचन इस प्रकार किया है - जो जगत् की त्रैकालिक अवस्था पर मनन करता है या उन्हें जानता है, वह मुनि है। जो जगत की त्रैकालिक गतिविधियों को जानता है, वही लोकाचार या जगत के भोगाभिलाषी स्वभाव को अथवा 'विश्व की समस्त आत्मा एक समान है' - इस समत्त्व - सूत्र को जानकर, हिंसा, मिथ्यात्व, अज्ञानादि शस्त्रों से दूर रहता है।
यहाँ 'सुप्त' शब्द भावसुप्त अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। भावसुप्त वह होता है, जो मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति, प्रमाद आदि के कारण हिंसादि में सदा प्रवृत्त रहता है।
जो दीर्घ संयम के आधारभूत शरीर को टिकाने के लिए आचार्य - गुरु आदि की आज्ञा से द्रव्य से सोतें,
'मन्यते मनुते वा जगतः त्रिकालावस्थां मुनिः ।' आचा० शीला० टीका पत्रांक १३७