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आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध इस शरीर के भीतर-भीतर अशुद्धि भरी हुई है, साधक इसे देखें। देह से झरते हुए अनेक अशुचि-स्रोतों को भी देखें। इस प्रकार पंडित शरीर की अशुचिता (तथा काम-विपाक) को भली-भाँति देखें।
- वह मतिमान् साधक (उक्त विषय को) जानकर तथा त्याग कर लार को न चाटे - वमन किये हुए भोगों का पुनः सेवन न करे। अपने को तिर्यक्मार्ग में - (काम-भोग के बीच में अथवा ज्ञान-दर्शन-चारित्र से विपरीत मार्ग में) न फँसाए।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अशुचि भावना' का वर्णन है। शरीर की अशुचिता को बताते हुए कहा है - यह जैसा भीतर में (मल-मूत्र-रुधिर-मांस-अस्थि-मज्जा-शुक्र आदि से भरा है) वैसा ही बाहर भी है। जैसा अशुचि से भरा मिट्टी का घड़ा, भीतर से अपवित्र रहता है, उसे बाहर से धोने पर भी वह शुद्ध नहीं होता इसी प्रकार भीतर से अपवित्र शरीर स्नान आदि करने पर भी बाहर में अपवित्र ही रहता है।
मिट्टी के अशुचि भरे घड़े से जैसे उसके छिद्रों में से प्रतिक्षण अशुचि झरती रहती है, उसी प्रकार शरीर से भी रोम-कूपों तथा अन्य छिद्रों (देहान्तर) द्वारा प्रतिक्षण अशुचि बाहर झर रही है - इस पर चिन्तन कर शरीर की सुन्दरता के प्रति राग तथा मोह को दूर करे।
यह अशुभ निमित्त (आलम्बन) से शुभ की ओर गतिशील होने की प्रक्रिया है। शरीर की अशुचिता एवं असारता का चिन्तन करने से स्वभावतः उसके प्रति आसक्ति तथा ममत्व कम हो जाता है।
'जहा अंतो तहा बाहिं' का एक अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है - साधक जिस प्रकार अन्तस् की शुद्धि (आत्म-शुद्धि) रखता है, उसी प्रकार बाहर की शुद्धि (व्यवहार-शुद्धि) भी रखता है।
जैसे बाहर की शुद्धि (व्यवहार की शुद्धि) रखता है, वैसे अन्तस् की शुद्धि भी रखता है। साधना में एकांगी नहीं, किन्तु सर्वांगीण शुद्धि - बाहर-भीतर की एकरूपता होना अनिवार्य है।
- लालं पच्चासी- द्वारा यह उद्बोधन किया गया है कि हे मतिमान् ! तुम जिन काम-भोगों का त्याग कर चुके हो, उनके प्रति पुनः देखो भी मत । त्यक्त की पुनः इच्छा करना - वान्त को, थूके हुए, वमन किये हुए को चाटना है।'
मा तेसु तिरिच्छे - शब्द से तिर्यक् मार्ग का सूचन है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र का मार्ग सरल व सीधा मार्ग है, इसके विपरीत मिथ्यात्व-कषाय आदि का मार्ग तिरछा - तिर्यक् व टेढ़ा मार्ग है। २ तुम ज्ञानादि के प्रतिकूल संसार मार्ग में न जाओ - यही भाव यहाँ पर समझना चाहिए।
९३. कासंकसे खलु अयं पुरिसे, बहुमायी, कडेण मूढे, पुणो तं करेति लोभं, वेरं वड्डेति अप्पणो । जमिणं परिकहिज्जइ इमस्स चेव पडिबूहणताए । अमरायइ महासड्डी । अट्टमेतं तु पेहाए । अपरिण्णाए कंदति ।
उत्तराध्ययन-२२। ४३ आचा० टीका पत्रांक १२५ चूर्णि में पाठ है - "पुणोतं करेति लोगं, नरगादिभवलोगं करेति णिव्वत्तेति"- वह अपने कृत-कर्मों से पुनः नरक आदि भाव लोक में गमन करता है।