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प्रधान संपादक का वक्तव्य
प्रस्तुत पुस्तक तत्कालीन-संचालक श्री मुनि जिनविजय द्वारा संभवतः सन् १९५१ में मुद्रित होने के लिए प्रेस में भेजी गई थी परन्तु अनेक कारणों से इसका प्रकाशन अभी तक नहीं हो सका था। अतः इस विलम्बित प्रकाशन के लिए क्षमा याचना करता हुना, इस ग्रन्थ को सुविज्ञ पाठकों के समक्ष उपस्थित करते हुए मैं सन्तोष का अनुभव करता हूँ ।
इस ग्रन्थ के अन्त में स्वर्गीय प्रोफेसर पी. के. गोडे द्वारा लिखित टिप्पणियों, परिशिष्टों तथा ग्रंथकार-परिचय को अंग्रेजी भाषा में 'पूना प्रोरियन्टलिस्ट' से उद्धृत किया गया है, जिसके द्वारा 'कविकोस्तुभ' एवं उसके रचयिता 'रघुनाथमनोहर' के विषय में पर्याप्त जानकारी मिल जाती है ।
१६ पृष्ठों में समाप्त इस कृति का परिचय सर्वप्रथम श्री गोडे द्वारा ही विद्वज्जगत् को कराया गया। यह ग्रन्थ काव्यशास्त्र के एक बहुत छोटे अंश को अपना लक्ष्य बनाकर प्रकट हुना है; केवल वाक्य-दोषों और पद-दोषों का निरूपण करना ही लेखक को अभीष्ट है । इस सीमित क्षेत्र में लेखक ने पर्याप्त सफलता प्राप्त की है। प्रत्येक दोष के चुने हुए उदाहरण देकर लेखक ने साहित्य के विद्यार्थियों के लिए उपादेय सामग्री प्रस्तुत की है । लेखक ने पूर्वाचार्यों द्वारा वर्णित काव्यदोषों को संक्षेप में गिनाने के पश्चात्, उनको वाक्य-दोषों और पद-दोषों में विभाजित करके, प्रत्येक प्रकार का पृथक्-पृथक् सरल और रोचक ढंग से विवेचन किया है। प्रत्येक दोष को छन्दोबद्ध व्याख्या-स्वरूप दोष का सोदाहरण लक्षण प्रस्तुत करके विभिन्न काव्य-ग्रन्थों से अपने कथन की सम्पुष्टि के लिए अनेक उद्धरण भी प्रस्तुत किये हैं। इस प्रसंग में विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि लेखक ने अपनी रचना के दोष भी उदाहरण-स्वरूप उपस्थित किये हैं, जैसा कि निम्नलिखित उद्धरण से स्पष्ट हैक्रमेण वाक्यदोषानाह(१) छन्दोभ्रष्टादि-व्याख्या यथा
हीनं यद्वृत्तं भेदेन छन्दोभ्रष्टं स्मृतं यथा । नवजलधरनिभो राजते नन्दनन्दनः ।।७।।
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