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पड़ी और फौरन ताड़ गया, यह गरीब ब्राह्मण है तथा सचमुच सोना लेने की फिराक में निकला होगा । लेकिन बेचारे को पकड़ लिया है ।
फिर राजा ने कपिल से पूछा- रात में क्यों भटक रहे थे ?
कपिल- “अन्नदाता, कई महीने हो गये भटकते-भटकते, पर सोना हाथ न आया । और, आज जब सोना लेने के लिए जल्दी आया, तो इन सिपाहियों के हाथ पड़ गया । इन्होंने मार-मार कर मेरी बड़ी दुर्गति की है ।" और यह कहते-कहते कपिल के नेत्र भर आए वह रो पड़ा ।
राजा द्रवित हो उठा । उसने सहानुभूति भरे स्वर में कहा- दो माशा सोने की क्या बात है ! बोलो, तुम क्या चाहते हो ?
कपिल सोच-विचार में पड़ गया । क्या मांगू ? दो माशा सोना मिल भी गया, तो उससे क्या होगा ? सेर दो सेर सोना क्यों न मांग लूँ ! पर वह भी खत्म हो जायेगा । दस-बीस सेर सोना मांग लूँ, तो ब्राह्मणी के भरपूर जेवर बन जाएँगे और चैन से जीवन गुजरेगा । पर उस टूटी झोपड़ी में सोने के जेवर क्या शोभा देंगे ! तो फिर एक महल भी क्यों न मांग लूँ । किन्तु जागीर के बिना महल की क्या शोभा ? तो फिर एक गाँव भी मांग लेने में क्या हर्ज है ? लेकिन एक गाँव काफी होगा ? नहीं, एक गाँव से भी क्या होगा ? जब मांगने ही चले तो एक प्रान्त मांग लेना ही ठीक है । मनुष्य के मन की तृष्णा अनन्त है ।
इस रूप में कपिल की इच्छाएँ आगे बढ़ीं 1 'जहा लाहो तहा लोहो ।' की उक्ति चरितार्थ होने लगी । आखिर, एक प्रान्त भी जब कपिल को छोटा लगा तो उसने राजा का सारा राज्य ही मांग लेने का इरादा कर लिया । हाय लोभ ! धिक् तृष्णा !!
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