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होती है तो पशु उसे खाने को आते हैं । किसान खेत के बीच में एक अड़वा खड़ा कर देता है । उसके सम्बन्ध में कहा गया है
जैसे अडवा खेत का, खाय न खावा देय ।
लकड़ियों का ढाँचा खड़ा करके दुनियाँ के गन्दे से गन्दे कपड़े उसे पहनाये जाते हैं और सिर की जगह काली हांडी रख दी जाती है ! वही नराकार अड़वा कहलाता है ।
फसल खड़ी है, पर अड़वा न खुद ही खाता है और न दूसरों का ही खाने देता है । वह केवल आदमी की शक्ल है, आदमी नहीं है । इसी प्रकार जो अपनी सम्पत्ति का न स्वयं उपभोग करता है, न दूसरों के काम आती है, वह भी क्या आदमी है ? वह शक्ल से इन्सान परन्तु इन्सान का दिल उसके पास नहीं है । उसकी इन्सानियत विदा हो गई है, वह जड़ के रूप में खड़ा है I
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इन्सानियत की बुद्धि जागेगी तो जड़ की इच्छा कम हो जाएगी और जीवन में जितनी ज्यादा लूट-खसोट होगी, इन्सानियत की आत्मा उतनी ही अधिक मलिन होती जाएगी । उसकी इन्सानियत का दीपक बुझता जाएगा । ऐसा आदमी खुद भी भटकेगा और दूसरों को भी भटकाएगा । परिग्रह की बुद्धि उसकी समग्र जिन्दगी को बर्बाद कर देगी ।
आशय यह है कि मनुष्य परिग्रह के चक्कर में पड़ कर अपने जीवन को नष्ट
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जीवन में जितनी ज्यादा लूट-खसोट होगी, इन्सानियत की आत्मा उतनी ही अधिक मलिन होती जाएगी। उसकी इन्सानियत
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बुझता जाएगा |
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