SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्कार्य ही जीवन में परिवर्तन ला सकते हैं। किसी ने कहा है- प्रभो ! मैं न राज्य चाहता अपने कर्तव्यों को देखो कि तुमने क्या हूँ, न साम्राज्य चाहता हूँ और न संसार की प्रतिष्ठा और इज्जत चाहता हूँ । मैं सिर्फ यह | किया है, क्या कर रहे हो और क्या चाहता हूँ कि नरक में भी जाऊँ तो इतनी करना चाहिए ? याद कृपा रहे कि मुझे तेरा नाम याद रहे ! रखो, तुम्हारे दुष्कार्य जिसके हृदय में भक्ति का तूफान | तुम्हारे जीवन का आया है, वह इतना अल्हड़ हो जाता है कि | नक्शा नहीं बदल अगर कोई उससे कह दे कि तू नरक में सकते है; सत्कार्य जायेगा, तो उससे यही उत्तर मिलता है- | ही जीवन में हजार बार नरक में जाऊँ, पर यह बता दो | परिवर्तन ला सकते कि परमात्मा की भक्ति और प्रेम तो मेरे हैं। हृदय से नहीं निकल जाएगा ? हृदय में परमात्मा के प्रति अखण्ड प्रीति की ज्योति जग रही हो तो मैं नरक के घोर अन्धकार को भी प्रकाशमय कर दूंगा । चित्त में भगवद् भक्ति भरी है तो फिर दुनियाँ के किसी कोने में जाने में कोई भय नहीं है । किन्तु कोणिक की भक्ति वास्तविक भक्ति नहीं थीं । वह तो स्वर्ग का सौदा करने के लिए प्रकट हुई थी और जनता की घृणा को प्रशंसा के रूप में परिणत करने के लिए पैदा हुई थी। उससे स्वर्ग कहाँ मिलने वाला था ? अभिप्राय यह है कि परिग्रह की लालसा मनुष्य को ले डूबती है । जहाँ परिग्रह की वृत्तियाँ जागती है, मनुष्य का जीवन अन्धकारमय बन जाता है । मनुष्य समझता है कि वैभव और सम्पत्ति को अपने कब्जे 60
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy