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ज्यों-ज्यों धन-सम्पत्ति और वैभव की प्राप्ति होती जाती है, त्यों-त्यों मनुष्य का लोभ भी बढ़ता ही चला जाता है । लाभ से लोभ का उपशमन नहीं होता, वर्द्धन ही होता है । ऐसा क्यों होता है ? शास्त्र में इस प्रश्न का उत्तर भी दिया गया है- इच्छा हु आगासममा अणंतिया ।
ज्यों-ज्यों धनसम्पत्ति और वैभव
की प्राप्ति होती
जाती है, त्यों-त्यों मनुष्य का लोभ भी
बढ़ता ही चला
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जैसे आकाश का कहीं ओर-छोर नहीं है, कहीं समाप्ति नहीं है, वह सभी ओर से अनन्त है, उसी प्रकार इच्छाएँ भी अनन्त हैं। सहस्राधिपति, लखपति बनने की सोचता है, लखपति करोड़पति बनने के मन्सूबे करता है, और करोड़पति अरबपति बनने के सपने देखता है। राजा, महाराजा बनना चाहता है, महाराजा सम्राट् होने का गौरव प्राप्त करना चाहता है । और एक सम्राट् दूसरे सम्राट् को अपने पैरों पर झुकाना चाहता है । इस स्थिति में विराम कहाँ, विश्राम कहाँ ? तृप्ति कहाँ ? तृप्ति अक्षय कोष में नहीं, तोष में है ।
जाता है। लाभ से लोभ का उपशमन नहीं होता, वर्द्धन
ही होता है ।
केरु
मगर दुनियाँ के साधारण लोगों की तरह कोणिक ने भी इस तथ्य को नहीं समझा था । वह सम्राट् बनकर भी तृप्त नहीं हो सका । उसने अपने पिता को कैद करके कारागार में डाल दिया और सिंहासन पर कब्जा कर लिया । इसके बाद उसकी निगाह अपने भाइयों की तरफ दौड़ी। उनके पास क्या था ? मनोरंजन के लिए हार था और हाथी था । मगध के विशाल साम्राज्य की तुलना में हार और हाथी का क्या मूल्य ?