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है तो उसे बावला ही बनाकर छोड़ता है । वह चारों ओर से मनुष्य को पकड़े रहता है, वह मनुष्य के किसी भी अंग को खाली नहीं छोड़ता । क्या मजाल कि परिग्रह के भूत से ग्रस्त मनुष्य, मन से या वाणी से उसके विरुद्ध कोई हरकत कर सके, कुछ ले सके या कुछ दे सके । इस प्रकार जीवन का कोई भी अंग उसकी पकड़ से खाली नहीं रहता, और इस रूप में मनुष्य का सारा जीवन जड़ बन जाता है ।
दुर्योधन के सिर पर परिग्रह का ज़बरदस्त भूत सवार था । पाण्डवों के लिए कृष्ण की उस छोटी-सी-मांग के उत्तर में दुर्योधन ने कहा- सूच्यग्रं नैव दास्यामि, विना युध्देन केशव ! "हे केशव ! तुम तो पाँच गाँवों की बात कहते हो, न जाने वे कितने बड़े होंगे, परन्तु मैं तो सुई की नोंक के बराबर जमीन भी युद्ध के बिना पाण्डवों को नहीं दे सकता ।" दुनियाँ भर के सम्राट् रहे, सोने के
आसक्ति ही महलों में रहने वाले रहे हैं और खजाने में
विनाश का कारण साँप बन कर रहे हैं, उनकी भी यही
बनती है । अन्तर्ध्वनि रही है कि हम तो साँप हैं, हम |
ले अपने आप तो देने से रहे, हाँ, मार कर ले जा सकते हो । जब तक जिन्दा हैं, तब तक नहीं देंगे, समाप्त करके कोई भले ले जाय । यही दुर्योधन ने कहा । आसक्ति ही विनाश का कारण बनती है।
दुर्योधन की इसी वृत्ति के परिणामस्वरूप इतना बड़ा महाभारत हुआ और रक्त की नदियाँ बह निकली । तो दुर्योधन की परिग्रह की जो वृत्ति है, कुछ भी न देने की जो भावना है, और जो कुछ पाया है, उस
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