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________________ जैन धर्म कहता है कि जीवन की । गाड़ी को चलाना तो है, किन्तु उस पर अंकुश रख कर ही चलाना होगा । जहाँ तक | अगर कहीं तुम्हारे आवश्यकता है, उसे वहीं तक ले जाए तो | स्वार्थ से दूसरे का ठीक है। मगर उससे आगे ले जाना खतरनाक स्वार्थ टकरा रहा हो, और गलत है। अगर कहीं तुम्हारे स्वार्थ से तो अपने ही स्वार्थ दूसरे का स्वार्थ टकरा रहा हो, तो अपने ही को मत देखो। दूसरे स्वार्थ को मत देखो। दूसरे की आवश्यकताओं की आवश्यकताओं का भी आदर करो । चलाओगे, तो हजारों का भी आदर करो। गाड़ियाँ चलती रहेंगी, कोई टक्कर नहीं 6 होगी । यदि इस रूप में नहीं चलोगे, तो टक्कर लगना अवश्यम्भावी है, और जहाँ दूसरों की गाड़ी चकनाचूर होगी, वहीं तुम्हारी गाड़ी भी चूर-चूर हो सकती है। यही अपरिग्रह-व्रत का आदर्श है । जहाँ तक जीवन की आवश्यकता का प्रश्न है, परिग्रह का महत्व समझा जा सकता है, किन्तु उसके आगे परिग्रह चले तो उस पर अंकुश लगा दो, फिर वह परिग्रह भी एक दृष्टि से अपरिग्रह हो जाता है ।। इस रूप में आनन्द गाथापति ने अपनी इच्छाओं का परिमाण किया तो उसकी समस्या हल हो गई । उसने जो सम्पत्ति प्राप्त कर ली थी, उसमें बढ़ोत्तरी नहीं की । उसके पास बहुत संचय था । अतएव उसने और संचय करना पूर्णतः बन्द कर दिया । उसने अपनी इच्छा और ममता पर अंकुश लगा दिया कि मेरे पास जो धन-सम्पत्ति है, उसे न अधिक बढ़ाऊँगा और न उससे अधिक रखूगा ही। और इस रूप में 42
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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